।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
अचला एकादशी-व्रत (सबका)
दुर्गुणोंका त्याग

(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक कहानी आती है । एक अच्छे पण्डितजी कथा कहते थे, लोगोंको सुनाते, पढ़ाते थे । एक दिन पण्डितजीकी स्त्रीने कह दिया कि महाराज ! पापका बाप कौन है ? तो पण्डितजी बता नहीं सके । बड़ा दुःख हुआ कि मैं इतना पढ़ा-लिखा पण्डित हूँ और यह तो कुछ नहीं जानती, पर मुझे इसके प्रश्नका भी उत्तर आया नहीं । तो पश्चात्ताप हुआ और उठकर चल दिये कि तेरे प्रश्नका उत्तर दिये बिना मैं तेरे हाथकी रोटी नहीं खाऊँगा । स्त्रीने बहुत अनुनय-विनय किया; पर पण्डितजीने कहा कि नहीं । स्त्रीको दुःख हुआ, पर विचार किया कि सुधार हो जाय तो अच्छी बात है, इस कारण चुपचाप रही ।

         वह जाने लगा, बीचमें एक वेश्याका घर था । वह पण्डितजीको जानती थी । उसे इस बातका आश्चर्य आया कि आज पण्डितजी उदास होकर कैसे जा रहे हैं । सामने जाकर उसने पूछा कि महाराज ! आज आप कहाँ जा रहे हैं, क्या बात है ? तो पण्डितजी बोले कि मुझे बड़ा दुःख है । वेश्याने पूछा ‒‘किस बातका ?’ । उत्तर दिया कि मेरी स्त्रीने प्रश्न किया और उत्तर मुझे आया नहीं । इसलिये काशी जाता हूँ वहाँ पढ़ाई करूँगा । पण्डितोंसे पूछूँगा । फिर आऊँगा घरपर । वेश्याने पूछा कि बात क्या है ? पण्डितजीने उत्तर दिया कि मेरी स्त्रीने पुछा कि पापका बाप कौन है ? मैं बता नहीं सका । वह बोली‒यह बात तो मैं बता दूँगी । पण्डितजी बोले कि अच्छी बात है, हमें तो बात मिलनी चाहिये । पण्डितजी रुक गये ।

           अमावस्याके पहले दिन सौ रुपये भेंट कर दिये और वह बोली कि मेरी प्रार्थना है कि मेरे घरपर आप भोजन कर लें, भोजन चाहे आप स्वयं बना लें । पण्डितजीने विचार किया कि इसमें दोष क्या है ? स्वीकार कर लिया निमन्त्रण । दूसरे दिन पण्डितजी चले गये । उसने भोजनकी सारी सामग्री तैयार कर ली । चौका देकर, रसोई साफ करके सामग्री सामने रख दी और वेश्याने सौ रुपये पण्डितजीके सामने रखे और कहा कि महाराज ! आप पक्की रसोई तो दूसरेके हाथकी पाते ही हैं, मैं बना दूँ अच्छी तरहसे । इतनी मुझपर कृपा हो जाय । पण्डितजीने सोचा कि पक्की रसोई पानेमें क्या है ? पक्की रसोई पाते तो हैं ही, चलो इसके हाथकी पा लेंगे । वेश्याने खीर, मालपुआ, पूरी साग आदि सब ठीक तरहसे बना लिये ।

           रसोई बनाकर तैयार हो गयी तो कहा‒पण्डितजी महाराज ! अब पावो । उनके सामने रसोई परोस दी । सामने लाकर सौ रुपये रख दिये और बोली कि एक कृपा और हो जाय, मेरे हाथसे ग्रास ले लो । पण्डितजीने सोचा इसमें हर्ज क्या है, इसके हाथकी बनायी हुई रसोई अपने न लेकर, उसके हाथसे ले लें, इसमें फर्क क्या है ? पण्डितजीने स्वीकार कर लिया । ग्रास बनाकर मुँहमें देने लगी तो जैसे ही पण्डितजीने मुँह खोला तो पण्डितजीके मुँहपर जोरका थप्पड़ मारा और बोली कि अभीतक होश नहीं आया, खबरदार मेरा एक भी दाना खाया तो । मैं आपका धर्म-भ्रष्ट नहीं करना चाहती । आपके शंका थी न कि पापका बाप कौन है ? शास्त्रोंमें वेश्याका अन्न कितना निषिद्ध लिखा है । आपने पढ़ा है ? ‘पढ़ा तो है’‒पण्डितजी बोले । तो आप कैसे तैयार हो गये खानेके लिये ? और वह भी मेरा बनाया हुआ और मेरे ही हाथसे । कारण क्या है ? आपको पता नहीं लगा, यह जो लोभ है न, यही पापका बाप है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे