(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
गीताजीने
(२/४४) में दो
आसक्तियाँ
बतायीं‒ ‘भोगेश्वर्यप्रसक्तानाम्’ सुखभोग
और संग्रह ।
इनमें
एक-एकसे आदमी
अन्धा हो
जाता है । अगर
दोनों हो जाय,
फिर तो उसका
कहना ही क्या
है । पूछा
गया कि
मनुष्य ऐसा
क्यों करता
है ? वह लोभमें
आकर करता है ।
सुख-आराम
मिले और धन
मिल जाय, ऐसी
चाहना होनेपर
फिर चाहे जो
काम करवा लो । दवाईके
नामसे चाहे
जो चीज खिला
दो और
व्यापारके
नामसे चाहे
जो काम करवा
लो । सुना है
कि
सनातन-धर्मके
आदमियोंने
मांस सप्लाईतक
किया
मिलिट्रीके
लिये । अब
व्यापार है,
राम ! राम ! राम !
भीतर लोभ है
कि रुपया आ
जाय तो उसके
लिये
क्या-क्या
अनर्थ करते हैं
लोग ! रोंगटे
खड़े हो जायँ
अगर विचार
करके देखें
तो ऐसे
अन्याय करते
हैं । और है
क्या ? यह धन
कितने दिन
ठहरेगा ? आप
कितने दिन
जीवेंगे ? परन्तु
पापकी गठरी
तो बाँध ही
लेता है ।
सन्तलोग
कहते हैं कि
तू थोड़ा-सा डर
तो सही ।
पाप
कर्मसे डर रे
मेरे मनवा रे ।
मन
! तू
पाप-कर्मसे
डर । तू
व्यर्थमें
अनर्थ करता
है, लोगोंका
माल मारता है
और भोग भोगता
है । निषिद्ध
रीतिसे सुख
भोगता है ।
थोड़ा-सा
विचार कर,
मनुष्य-शरीर
मिला है
तेरेको ।
अच्छी-अच्छी
बातें सुनने,
कहनेका मौका
मिलता है, फिर
भी तू ऐसा
करता है ।
भाइयो,
सज्जनो !
दुनियाका
उद्धार हो
सकता है, परन्तु
ऐसे आदमीका
उद्धार नहीं
होगा जो
महान्
अपराध करता
है फिर पूछते
हैं कि
वैराग्य
क्यों नहीं
ठहरता ? वैराग्य
कैसे ठहरे ? जब
राग ऊपर चढ़ा
हुआ है,
भोग-इच्छा
भीतर पड़ी हुई
है । वैराग्य
कैसे टिके ?
वहाँ
वैराग्य
नहीं टिकेगा
।
विरुद्ध
अवस्था है यह ।
रागके
वशीभूत होकर
निषिद्ध
आचरणसे बचता
नहीं । भाई
! अगर आप
दुर्गतिसे
बचना चाहते
हैं, नरकोंसे
बचना चाहते
हैं, तो आजसे,
अभीसे विचार
कर लें कि
दूसरोंका हक
नहीं लेंगे ।
किसी रीतिसे
ही लिया हो, वह
ब्याज-सहित
उसको पूरा-का-पूरा
दे दें ।
दूसरेका हक
मारनेका भाव
भीतरसे
सदाके लिये उठा
दो । जीवन
निर्मल बना
लो सज्जनो ! तब
तो ये
पारमार्थिक
बाते समझमें
आने लग जायेंगी
। आचरणमें
आने लग
जायेंगी ।
परन्तु जबतक
नीयत खराब
होगी, तबतक ये
बातें समझमें
नहीं आ सकतीं ।
याद कर लो,
दूसरोंको
सुना दो,
परन्तु जबतक
पाप विराजमान
है भीतर, तबतक
कुछ नहीं
होगा ।
इसलिये
कम-से-कम, सबसे
पहले यह
निश्चय कर लो
कि
अन्यायपूर्वक
भोग नहीं भोगेंगे
और
अन्यायपूर्वक
संग्रह नहीं
करेंगे ।
निषिद्ध
कर्मोंका
त्याग सबसे
पहला त्याग
है ।
‘त्यागसे
भगवत्प्राप्ति’
पूज्य
श्रीसेठजीका
लेख है उसमें
सबसे पहला
त्याग
निषिद्ध
कर्मोंका
त्याग है‒झूठ, कपट,
जालसाजी,
बेईमानी, अभक्ष्य-भक्षण
आदि-आदि ये
निषिद्ध
आचरण शरीरसे,
मनसे, कभी
नहीं करना
चाहिये । यह
पारमार्थिक
मार्गमें
कलंक है । क्या पहले
कलंकका भी
त्याग नहीं
कर सकते ? हृदयसे
त्याग कर दो ।
भीतरसे
त्यागका भाव
मुख्य है
इतना होनेपर
भी किसी
कारणसे कोई
पाप या दोष हो
जाय तो जलन
पैदा हो
जायगी यह
इसकी पहिचान
है । अशान्ति
हो जायगी । उस जलनमें
यह ताकत है कि
आगे दुबारा
पाप नहीं होगा
। पक्का
विचार कर लें
कि अब नहीं
करेंगे । हे
नाथ ! ऐसा बल दो,
ऐसी शक्ति दो
कि आपकी
आज्ञाके
विरुद्ध कोई
काम न करें ।
तो भगवान्
मदद करते हैं । सच्चे
हृदयसे
परमात्माकी
तरफ
चलनेवालेपर
दुनियामात्र
कृपा करती है
और मदद करती
है । सभी मदद
करते हैं,
उसकी सहायता
करते हैं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
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