।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
दुर्गुणोंका त्याग

(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीताजीने (२/४४) में दो आसक्तियाँ बतायीं‒ ‘भोगेश्वर्यप्रसक्तानाम्’ सुखभोग और संग्रह । इनमें एक-एकसे आदमी अन्धा हो जाता है । अगर दोनों हो जाय, फिर तो उसका कहना ही क्या है । पूछा गया कि मनुष्य ऐसा क्यों करता है ? वह लोभमें आकर करता है । सुख-आराम मिले और धन मिल जाय, ऐसी चाहना होनेपर फिर चाहे जो काम करवा लो । दवाईके नामसे चाहे जो चीज खिला दो और व्यापारके नामसे चाहे जो काम करवा लो । सुना है कि सनातन-धर्मके आदमियोंने मांस सप्लाईतक किया मिलिट्रीके लिये । अब व्यापार है, राम ! राम ! राम ! भीतर लोभ है कि रुपया आ जाय तो उसके लिये क्या-क्या अनर्थ करते हैं लोग ! रोंगटे खड़े हो जायँ अगर विचार करके देखें तो ऐसे अन्याय करते हैं । और है क्या ? यह धन कितने दिन ठहरेगा ? आप कितने दिन जीवेंगे ? परन्तु पापकी गठरी तो बाँध ही लेता है । सन्तलोग कहते हैं कि तू थोड़ा-सा डर तो सही ।
पाप कर्मसे डर रे मेरे मनवा रे ।

        मन ! तू पाप-कर्मसे डर । तू व्यर्थमें अनर्थ करता है, लोगोंका माल मारता है और भोग भोगता है । निषिद्ध रीतिसे सुख भोगता है । थोड़ा-सा विचार कर, मनुष्य-शरीर मिला है तेरेको । अच्छी-अच्छी बातें सुनने, कहनेका मौका मिलता है, फिर भी तू ऐसा करता है । भाइयो, सज्जनो ! दुनियाका उद्धार हो सकता है, परन्तु ऐसे आदमीका उद्धार नहीं होगा जो महान्‌ अपराध करता है फिर पूछते हैं कि वैराग्य क्यों नहीं ठहरता ? वैराग्य कैसे ठहरे ? जब राग ऊपर चढ़ा हुआ है, भोग-इच्छा भीतर पड़ी हुई है । वैराग्य कैसे टिके ? वहाँ वैराग्य नहीं टिकेगा । विरुद्ध अवस्था है यह । रागके वशीभूत होकर निषिद्ध आचरणसे बचता नहीं । भाई ! अगर आप दुर्गतिसे बचना चाहते हैं, नरकोंसे बचना चाहते हैं, तो आजसे, अभीसे विचार कर लें कि दूसरोंका हक नहीं लेंगे । किसी रीतिसे ही लिया हो, वह ब्याज-सहित उसको पूरा-का-पूरा दे दें । दूसरेका हक मारनेका भाव भीतरसे सदाके लिये उठा दो । जीवन निर्मल बना लो सज्जनो ! तब तो ये पारमार्थिक बाते समझमें आने लग जायेंगी । आचरणमें आने लग जायेंगी । परन्तु जबतक नीयत खराब होगी, तबतक ये बातें समझमें नहीं आ सकतीं । याद कर लो, दूसरोंको सुना दो, परन्तु जबतक पाप विराजमान है भीतर, तबतक कुछ नहीं होगा । इसलिये कम-से-कम, सबसे पहले यह निश्चय कर लो कि अन्यायपूर्वक भोग नहीं भोगेंगे और अन्यायपूर्वक संग्रह नहीं करेंगे । निषिद्ध कर्मोंका त्याग सबसे पहला त्याग है ।

          ‘त्यागसे भगवत्प्राप्ति’ पूज्य श्रीसेठजीका लेख है उसमें सबसे पहला त्याग निषिद्ध कर्मोंका त्याग है‒झूठ, कपट, जालसाजी, बेईमानी, अभक्ष्य-भक्षण आदि-आदि ये निषिद्ध आचरण शरीरसे, मनसे, कभी नहीं करना चाहिये । यह पारमार्थिक मार्गमें कलंक है । क्या पहले कलंकका भी त्याग नहीं कर सकते ? हृदयसे त्याग कर दो । भीतरसे त्यागका भाव मुख्य है इतना होनेपर भी किसी कारणसे कोई पाप या दोष हो जाय तो जलन पैदा हो जायगी यह इसकी पहिचान है । अशान्ति हो जायगी । उस जलनमें यह ताकत है कि आगे दुबारा पाप नहीं होगा । पक्का विचार कर लें कि अब नहीं करेंगे । हे नाथ ! ऐसा बल दो, ऐसी शक्ति दो कि आपकी आज्ञाके विरुद्ध कोई काम न करें । तो भगवान्‌ मदद करते हैं । सच्चे हृदयसे परमात्माकी तरफ चलनेवालेपर दुनियामात्र कृपा करती है और मदद करती है । सभी मदद करते हैं, उसकी सहायता करते हैं ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे