(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
क्रिया
और
अक्रियाको
दूसरे
शब्दोंमें
प्रवृत्ति
और निवृत्ति
भी कह सकते
हैं ।
संसारकी
प्रत्येक
प्रवृत्तिकी
स्वतः निवृत्ति
हो रही है ।
प्रवृत्तिके
समय भी
निवृत्ति
ज्यों-की-त्यों
विद्यमान है ।
हम सोते हैं,
जागते हैं,
बैठते हैं, चलते
हैं, सुनते
हैं, बोलते
हैं तो इन सब
क्रियाओंमें
भी नाशकी तरफ
जानेवाली
क्रिया
(निवृत्ति)
निरन्तर हो
रही है । यह
निवृत्ति
नित्य है ।
इसका कभी नाश
नहीं होता ।
इस नित्य
निवृत्तिको
ही गीताने ‘गुणा
गुणेषु
वर्तन्ते’
(३/२८), ‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु
वर्तन्ते’ (५/९) आदि पदोंसे
कहा है ।
हम
पदार्थोंकी
प्राप्तिके
लिये
प्रवृत्ति करते
हैं, पर
वास्तवमें
प्राप्ति
नहीं होती, प्रत्युत
निवृत्ति ही
होती है । जैसे,
धन प्राप्त
हो गया तो
वास्तवमें
धनकी निवृत्ति
हुई है । किसी
आदमीको पचास
वर्ष धनी
रहना है और एक
वर्ष बीत गया
तो अब वह पचास
वर्ष धनी
नहीं रहेगा,
उसकी एक वर्षकी
धनवत्ता
निवृत्त हो
गयी । इस तरह
क्रियामात्र
निरन्तर
हमारेसे
निवृत्त हो
रही है
अर्थात्
अलग हो रही है ।
परन्तु संयोगकी
रुचिके कारण
हमें
निवृत्तिमें
भी प्रवृत्ति
दीखती है ।
अगर संयोगकी
रुचि मिट जाय
तो नित्ययोगकी
प्राप्ति हो
जायगी ।
अपने
स्वरूपमें
अथवा
परमात्मतत्त्वमें
अपनी
स्थितिका
नाम
नित्ययोग है । इस
नित्ययोगकी
प्राप्तिके
लिये ही सब
साधन हैं । यह
नित्ययोग ही
गीताका योग
है, जिसकी परिभाषा
भगवान्ने
दो प्रकारसे
की है‒(१)
समताका नाम
योग है‒‘समत्वं
योग उच्यते’ (२/४८) और (२)
दुःखस्वरूप
संसारके
संयोगके
वियोगका नाम
योग है‒‘तं
विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्’
(६/२३) । चाहे
समता कह दो,
चाहे
संसारके
संयोगका
वियोग कह दो,
दोनों एक ही
हैं ।
तात्पर्य है
कि समतामें
स्थिति
होनेपर
संसारके
संयोगका वियोग
हो जायगा और
संसारके
संयोगका
वियोग
होनेपर
समतामें
स्थिति हो
जायगी । दोनोंमेंसे
कोई एक
होनेपर
नित्ययोगकी
प्राप्ति हो
जायगी । इसको
शास्त्रोंमें
मूलाविद्यासहित
जगत्की
निवृत्ति और
परमानन्दकी
प्राप्ति
कहा गया है ।
गीताने
मूलाविद्यासहित
जगत्की
निवृत्तिको
कहा है‒‘तं
विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्’ और
परमानन्दकी
प्राप्तिको
कहा है‒‘समत्वं
योग उच्यते’ ।
मूलाविद्यासहित
जगत्की
निवृत्तिका
नाम भी योग है
और
परमानन्दकी
प्राप्तिका
नाम भी योग है ।
इस योगकी
प्राप्तिमें
संयोगकी
रुचि और क्रियाकी
रुचि ही खास
बाधक है ।
पदार्थ
अच्छे लगते
हैं, करना
अच्छा लगता
है‒यही खास
बाधा है । पदार्थ और
क्रिया
प्रकृतिका
स्वरूप है ।
अगर
पदार्थों और
क्रियाओंका
आकर्षण न रहे
तो अपने
अक्रिय
स्वरूपका
स्वतः अनुभव
हो जायगा* । मूलमें
पदार्थोंके
संयोगकी
रुचि ही बाधक
है; क्योंकि
संयोगकी
रुचि होनेसे
क्रियाकी
रुचि होती है ।
क्रियाकी
रुचिसे
कर्तृत्वाभिमान
आता है और कर्तृत्वाभिमानसे
देहाभिमान
दृढ़ होता है ।
अगर संयोगकी
रुचि न रहे तो
क्रियाकी
रुचि नहीं
होगी;
क्योंकि
किसी-न-किसी
प्रयोजनकी
सिद्धिके
लिये ही
क्रिया की
जाती है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘सहज
साधना’
पुस्तकसे
________________
*यदा हि
नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते
।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी
योगारूढस्तदोच्यते
॥
‘जिस समय
न
इन्द्रियोंके
भोगोंमें तथा
न कर्मोंमें
ही आसक्त होता
है, उस समय वह
सम्पूर्ण
संकल्पोंका
त्यागी
मनुष्य
योगारूढ़ कहा
जाता है ।
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