(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
अर्जुनने
भगवान्से
कहा कि
धर्मका
निर्णय
करनेमें
मेरी बुद्धि
काम नहीं कर
रही है‒‘धर्मसम्मूढचेताः’;
अतः मैं आपकी
शरण हूँ, तो
भगवान्ने
कहा कि तुझे
धर्मका
निर्णय करनेकी
जरूरत ही
नहीं है‒‘सर्वधर्मान्
परित्यज्य’ ।
जिनके भीतर
कामना है, वे
धर्मका
आश्रय
लेनेवाले
बार-बार
जन्मते और
मरते रहते
हैं‒‘एवं
त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं
कामकामा
लभन्ते’ (गीता
९/२१) । अतः
धर्मका
आश्रय न लेकर
अनन्यभावसे
एक मेरी शरण
ले‒‘मामेकं
शरणं व्रज’ ।
अर्जुन
कहता है कि
मैं युद्ध
करूँगा तो
पाप लगेगा* और
भगवान्
कहते हैं कि
तू युद्ध
नहीं करेगा
तो पाप लगेगा† । परन्तु
अन्तमें
भगवान्
अत्यन्त
कृपा करके
कहते हैं कि
तू पापसे मत डर,
तू मेरी
शरणमें आ जा
तो मैं
तेरेको सब
पापोंसे
मुक्त कर
दूँगा । इसके
साथ ही
भगवान्
आश्वासन भी
देते हैं कि
तू चिन्ता मत
कर ।
सम्पूर्ण
पाप और दुःख
भगवान्से
विमुख
होनेसे ही
होते हैं । भगवान्से
विमुख होना
सबसे बड़ा पाप
है और सम्मुख
होना सबसे
बड़ा पुण्य है । इसलिये
भगवान्ने
कहा है‒
सनमुख
होई जीव मोहि
जबहीं ।
जन्म
कोटि अघ
नासहिं तबहीं
॥
(मानस,
सुन्दर॰ ४४/१)
भगवान्के
सम्मुख
होनेसे
पापों और
दुःखोंका
मूल नष्ट हो
जाता है ।
सन्तोंने
कहा है कि
भगवान्के
सम्मुख होना
पूरा पुण्य
है और
सद््गुण-सदाचारमें
लगना आधा
पुण्य है ।
इसी तरह
भगवान्से
विमुख होना
पूरा पाप है
और
दुर्गुण-दुराचारोंमें
लगना आधा पाप
है । जीव
भगवान्का
अंश है और
अंशीसे
विमुख
होनेसे ही वह
दुःख पाता है ।
जब वह
भगवान्की
शरण हो जाता
है, तब सब
पाप-ताप मिट
जाते हैं ।
साधकको
चाहिये कि वह
सरल हृदयसे
ऐसा कह दे कि ‘हे
नाथ ! मैं आपका
हूँ’ अब मान ले
कि मैं
भगवान्की
शरण हो गया और
भगवान्ने
मेरेको
स्वीकार कर
लिया ।
वास्तवमें
भगवान्
किसीका भी
त्याग करते
नहीं, किया
नहीं और करेंगे
नहीं । सर्वसमर्थ
भगवान्में
किसीका
त्याग
करनेकी
सामर्थ्य ही
नहीं है । उन्होंने
सबको अपनी
शरणमें ले
रखा है । हम ही
उनसे विमुख
होकर
संसारके
सम्मुख हो
गये, संसारकी
शरण हो गये ।
अतः भगवान्
कहते हैं कि
सब धर्मोका
आश्रय छोड़कर
एक मेरी शरण
हो जाओ तो मैं
तुम्हे
सम्पूर्ण
पापोंसे
मुक्त कर
दूँगा,
चिन्ता मत
करो ।
तात्पर्य है
कि धर्मका
अनुष्ठान
करो, पर धर्मका
अनुष्ठान
करके मैं
अपना कल्याण
कर लूँगा‒यह
आश्रय मत रखो ।
नाम, जप,
कीर्तन,
प्रार्थना,
गीता-रामायणका
पाठ,
शास्त्रोंका
अध्ययन आदि
सब करो, पर
इनसे मैं
अपना कल्याण
कर लूँगा‒ऐसा
अभिमान मत
रखो । अपने
उद्योगसे
कोई अनन्त
पापोंका नाश
नहीं कर सकता;
क्योंकि यह
ताकत जीवमें
नहीं है,
प्रत्युत
भगवान्में
ही है । इसलिये
भगवान्
कहते हैं‒‘अहं त्वा
सर्वपापेभ्यो
मोक्षयिष्यामि
मा शुचः’ अर्थात्
सम्पूर्ण
पापोंसे
मुक्त मैं
करूँगा, तुम
चिन्ता
क्यों करते
हो !
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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* पापमेवाश्रयेदस्मान्
हत्वैतानाततायिनः
॥ (गीता १/३६)
अहो बात
महत्पापं
कर्तुं
व्यवसिता वयम्
। (गीता १/४५)
† अथ
चेत्त्वमिमं धर्म्यं
संग्रामं न करिष्यसि
।
ततः
स्वधर्मं
कीर्तिं च
हित्वा
पापमवाप्स्यसि
॥ (गीता
२/३३)
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