(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
अनुकूलताके
समय
प्रतिकूलता
नहीं है और
प्रतिकूलताके
समय
अनुकूलता
नहीं है ।
परन्तु
जिसको इन
दोनों
अवस्थाओंका
ज्ञान है, उस
स्वयंमें न
अनुकूलता है,
न
प्रतिकूलता
है । अनुकूलताकी
अपेक्षा
प्रतिकूलता
है और प्रतिकूलताकी
अपेक्षा
अनुकूलता है ।
निरपेक्ष
सत्ता (स्वयं)
में न
अनुकूलता है,
न प्रतिकूलता
।
बन्धन-अवस्थामें
मुक्तिका
अभाव है और मुक्त-अवस्थामें
बन्धनका
अभाव है ।
जैसे
बन्धन-अवस्थामें
मुक्ति नहीं
है, ऐसे ही
स्वयंमें
बन्धन-अवस्था
नहीं है और
जैसे मुक्त-अवस्थामें
बन्धन नहीं
है, ऐसे ही
स्वयंमें मुक्त-अवस्था
भी नहीं है । बन्धनकी
अपेक्षा
मुक्ति है और
मुक्तिकी
अपेक्षा
बन्धन है ।
अपेक्षा न हो
तो स्वयंमें
न बन्धन है, न
मुक्ति ।
इसी
तरह सुख-दुःख,
हर्ष-शोक,
मान-अपमान,
निन्दा-प्रशंसा
आदि भी
अवस्थाएँ
हैं, पर जो इन
अवस्थाओंको
जाननेवाला
है, उसमें ये
अवस्थाएँ
नहीं हैं ।
जैसे
सूक्ष्मदृष्टिसे
देखें तो
प्यास और जल‒दोनोंमें
कोई फर्क
नहीं है ।
प्यास लगनेपर
जलका चिन्तन
होता है और जिसका
चिन्तन होता
है, उसके साथ
सम्बन्ध
होता है । जब जल
पीते हैं, तब
प्यास शान्त
हो जाती है ।
अतः प्यास और
जल‒दोनोंमें
जातीय एकता
(सजातीयता) है ।
जलकी इच्छा
ही प्यास है,
जलका अभाव
प्यास नहीं
है । ऐसे ही
धनकी इच्छा
ही निर्धनता
है*, धनका
अभाव
निर्धनता
नहीं है ।
जैसे,
कुत्तेके
पास धनका
अभाव है, पर वह
निर्धन नहीं
कहलाता ।
विरक्त,
त्यागी
पुरुषको कोई
निर्धन नहीं
कहता ।
तात्पर्य है
कि जैसे,
प्यास और जल
एक है, ऐसे ही धनवत्ता
और निर्धनता,
विद्वत्ता
और मूर्खता आदि
भी एक हैं,
क्योंकि
दोनों ही
सापेक्ष
अवस्थाएँ
हैं । अतः
पहले मैं
निर्धन था, अब
मैं धनवान्
हूँ; पहले मैं
मूर्ख था, अब
मैं
विद्वान्
हूँ‒यह केवल
अवस्थाका
परिवर्तन है ।
परन्तु स्वयं
अवस्थातीत
है । ऐसे ही
मनुष्य
स्वर्गमें
जाता है अथवा
ब्रह्मलोकमें
जाता है तो यह
केवल
अवस्थाका
परिवर्तन है‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः
पुनरावर्तिऽनोऽर्जुन’
(गीता ८/१६) ।
वास्तवमें
प्यासकी
जितनी सत्ता
है, उतनी जलकी
सत्ता नहीं
है । कारण कि
प्याससे
जलके साथ
सम्बन्ध
जुड़ता है और
प्यास
मिटनेसे
जलके साथ
सम्बन्ध-विच्छेद
होता है । ऐसे
ही संसारकी
इच्छासे
संसारके साथ
सम्बन्ध
जुड़ता है ।
संसारकी
प्राप्ति
होनेपर
संसारकी
इच्छा मिटती
नहीं,
प्रत्युत और
बढ़ती है;
क्योंकि
संसारकी
स्वतन्त्र
सत्ता नहीं
है । परन्तु
परमात्माकी
नित्य सत्ता
है ।
तात्पर्य है
कि संसारकी
प्राप्ति
होनेपर भी
कमीकी पूर्ति
नहीं होती,
प्रत्युत
कमी बढ़ती है । जैसे,
धन मिलनेपर
भी धनकी
इच्छा बढ़ती
है और इच्छा
बढ़नेसे धनका
अभाव तथा
दुःख, सन्ताप,
जलन आदि बढ़ते
है । परन्तु
परमात्माकी
प्राप्ति
होनेपर
कमीका सदाके
लिये
अत्यन्त
अभाव हो जाता
है तथा कुछ भी
करना, जानना
और पाना बाकी
नहीं रहता;
क्योंकि
परमात्मामें
कमी है ही
नहीं ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन
खोजा तिन
पाइया’
पुस्तकसे
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*‘को वा
दरिद्रो हि
विशालतृष्णः’
(प्रश्नोत्तरी
५)
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