(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
शंका−विदेशोंमें
प्रायः
लोगोंका
चरित्र गिर
रहा है, वहाँ
व्यभिचार,
हिंसा आदि
पाप भी अधिक
हो रहे हैं,
फिर भी वे देश
उन्नत क्यों
हैं ?
समाधान−वह
उन्नति
भौतिक है । भौतिक
उन्नति
वास्तवमें
उन्नति है ही
नहीं ।
आध्यात्मिक
उन्नति ही
वास्तविक
उन्नति है ।
जिनकी
आध्यात्मिक
दृष्टि नहीं
है, प्रत्युत भौतिक
दृष्टि है,
उनको ही
भौतिक
उन्नति बड़ी
दीखती है । विदेशोंमें
भौतिक
उन्नति
होनेपर भी
लोग भीतरसे
दुःख, अशान्ति,
संतापसे जल
रहे हैं,
जिससे वहाँ
आत्महत्याएँ
बढ़ रही हैं । भौतिक
उन्नतिका
परिणाम
विनाश है । हमारे
देशमें पहले
राक्षसोंके
पास बहुत भौतिक
उन्नति थी, पर
उन्होंने
दूसरोंका भी
नाश किया और
खुद भी नष्ट
हो गये ।
रावणने बहुत
अधिक भौतिक
उन्नति की थी,
पर परिणाममें
उसका,
प्रजाका और
भौतिक
उन्नतिका
विनाश ही हुआ ।
ऐसी दशा हुई
कि पीछे
रोनेवाला
कोई नहीं रहा !
महाभारत
(वनपर्व, अध्याय
९७) में एक कथा
आती है ।
महर्षि
अगस्त्यकी
पत्नी
लोपामुद्राने
एक बार
सुन्दर
वस्त्राभूषणोंकी
इच्छा प्रकट
की । धन
प्राप्त
करनेके लिये
अगस्त्यजी
क्रमशः
श्रुतर्वा, ब्रघ्नश्व
और
त्रसदस्यु−तीन
राजओंके पास
गये । परन्तु
तीनों ही
राजाओंके
यहाँ
उन्होंने आय और
व्ययका
हिसाब बराबर
देखा । इनसे
कुछ भी धन
लेनेसे
प्राणियोंको
दुःख होगा−ऐसा
विचार करके
अगस्त्यजीने
उन राजाओंसे
कुछ नहीं
लिया । तब उन
राजाओंने
आपसमें
विचार करके
कहा कि इल्वल
नामक राक्षस
सबसे अधिक
धनवान् है;
अतः धन
प्राप्त
करनेके लिये
उसीके पास
जाना चाहिये ।
फिर वे तीनों
राजा महर्षि
अगस्त्यके
साथ इल्वलके
पास गये ।
वहाँसे उनको
बहुत-सा धन
प्राप्त हुआ ।
तात्पर्य है
कि आवश्यकतासे
अधिक धन
यक्ष-राक्षसोंके
पास ही होता
था, राजाओंके
पास नहीं ।
इसलिये जो
केवल धनका
संग्रह तथा
उसकी रक्षा
करता है, वह
यक्षवित्त
कहलाता है ।
यक्षवित्तका
पतन होता है−‘यक्षवित्तः
पतत्यधः’
(श्रीमद्भागवत
११/२३/२४) ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
−‘देशकी
वर्तमान दशा
और उसका
परिणाम’
पुस्तकसे
|