(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
अगर
हम
अवस्थाओंकी
सत्ताको
स्वीकार
करें तो अवस्थाओंकी
अनित्यता
तथा अनेकता
और अपनी नित्य
तथा एक सत्ता
अनुभवमें
आती है और अगर
हम अवस्थाओंकी
सत्ताको
स्वीकार न
करें
अर्थात्
अवस्थाओंकी
कल्पना न
करें तो
एकमात्र
अपनी नित्य
सत्ता स्वतः
ज्यों-की-त्यों
अनुभवमें आती
है । इसको यों
भी कह सकते
हैं कि हम
अवस्थाओंकी
सत्ताको
मानें तो
उनका अभाव दीखता
है; परन्तु
अपनी
सत्ताको
मानें अथवा न
मानें, उसका
भाव ही दीखता
है, अभाव कभी
नहीं दीखता । इसलिये
गीताने कहा
है‒‘नासतो
विद्यते
भावो नाभावो
विद्यते सतः’
(२/१६) अर्थात्
असत्की
सत्ता
विद्यमान
नहीं है और
सत्का अभाव
विद्यमान
नहीं है । जो
विद्यमान है,
वह तत्त्व है
और जो
विद्यमान नहीं
है, वह
अतत्त्व है । तत्त्वमें
अतत्त्व
नहीं है और
अतत्त्वमें
तत्त्व नहीं
है । परन्तु
यह कथन
अतत्त्वकी
सत्ता
माननेसे ही है
।
अवस्थाओंकी
सत्ता
स्वीकार
करके अपनेको
अवस्थामें
और अवस्थाको
अपनेमें माननेसे
संसारमें
प्रवृत्ति
(करना) और
निवृत्ति (न
करना) होती है ।
उस
प्रवृत्ति
और
निवृत्तिको
लेकर
अपनेमें ‘कर्तृत्व’
दीखता है और
उसके फलको
लेकर
अपनेमें ‘भोक्तृत्व’
दीखता है । अगर
अवस्थाओंकी
सत्ता
स्वीकार न
करें तो अपनेमें
अकर्तृत्व
और
अभोक्तृत्वका
अर्थात्
वास्तविक
एवं
निरपेक्ष
निर्विकारताका
अनुभव स्वतः
हो जाता है ।
जब
साधक
वर्तमानमें ‘नैव
किञ्चित्करोमीति’
(गीता ५/८) ‘मैं
स्वयं कुछ भी
नहीं करता
हूँ’‒इस
प्रकार
स्वयंको
अकर्ता
अनुभव करने
लगता है, तब
उसके सामने
एक बड़ी
समस्या आती
है । जब उसको
भूतकालमें
किये हुए
अच्छे
कर्मोंकी याद
आती है, तब वह
सुखी हो जाता
है कि मैंने
बहुत अच्छा
काम किया,
बहुत ठीक
किया ! और जब
उसको निषिद्ध
कर्मोंकी
याद आती है, तब
वह दुःखी हो
जाता है कि
मैंने बहुत
बुरा काम
किया, बहुत गलती
की । इस
प्रकार
भूतकालमें
किये गये
कर्मोंके
संस्कार
उसको
सुखी-दुःखी
करते हैं । इस
विषयमें एक
मार्मिक बात
है ।
स्वरूपमें
कर्तापन न तो
वर्तमानमें
हैं, न भूतकालमें
और न
भविष्यमें
ही होगा । अतः
साधकको यह
देखना चाहिये
कि जैसे
वर्तमानमें
स्वयं
अकर्ता है*, ऐसे ही
भूतकालमें
भी स्वयं
अकर्ता था । कारण
कि वर्तमान
ही
भूतकालमें
गया है ।
स्वरूप
सत्तामात्र
है और
सत्तामात्रमें
कोई कर्म
करना बनता ही
नहीं । कर्म
केवल
अहंकारसे
मोहित
अन्तःकरणवाले
अज्ञानी
मनुष्यके
द्वारा ही
होते हैं‒
अहंकारविमूढात्मा
कर्ताहमिति
मन्यते ॥
(गीता ३/२७)
साधकको
भूतकालमें
किये हुए
कर्मोंकी याद
आनेसे जो
सुख-दुःख
होता है,
चिन्ता होती
है, यह भी
वास्तवमें
अहंकारके
कारण ही है । वर्तमानमें
अहंकारविमूढात्मा
होकर अर्थात्
अहंकारके
साथ अपना
सम्बन्ध
मानकर ही
साधक सुखी-दुःखी
होता है ।
स्थूलदृष्टिसे
भी देखें तो
जैसे अभी
भूतकालका
अभाव है, ऐसे
ही
भूतकालमें
किये गये
कर्मोंका
अभी
प्रत्यक्ष
अभाव है । अतः भूतकालके
अभावको
भावरूप
देखना,
भूतकालकी घटनाओंको
सत्ता देकर
राजी-नाराज
होना बिलकुल
गलतीकी बात
है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन
खोजा तिन
पाइया’
पुस्तकसे
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* शरीरस्थोऽपि
कौन्तेय न
करोति न लिप्यते
॥ (गीता १३/३१)
‘यह
आत्मा
शरीरमें रहता
हुआ भी न करता
है और न लिप्त
होता है ।’
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते
नरः ।
न्याय्यं
वा विपरीतं वा
पञ्चैते तस्य
हेतवः ॥
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः
॥
(गीता
१८/१५-१६)
‘मनुष्य
शरीर, वाणी और
मनके द्वारा
शास्त्रविहित
अथवा
शास्त्रविरुद्ध
जो कुछ भी
कर्म आरम्भ
करता है, उसके
ये (अधिष्ठान,
कर्ता, करण,
चेष्टा और
दैव) पाँच
हेतु होते हैं
। परन्तु ऐसे
पाँच
हेतुओंके
होनेपर भी जो
उस (कर्मोंके)
विषयमें केवल
(शुद्ध)
आत्माको
कर्ता मानता
है, वह
दुर्मति ठीक
नहीं समझता;
क्योंकि उसकी
बुद्धि शुद्ध
नहीं है ।’
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