(गत ब्लॉगसे
आगेका)
सूक्ष्मदृष्टिसे
देखा जाय तो
जैसे
भूतकालमें
वर्तमानका
अभाव था, ऐसे
ही भूतकालका
भी अभाव था !
इसी तरह
वर्तमानमें
जैसे भूतकालका
अभाव है, ऐसे
ही
वर्तमानका
भी अभाव है ।
परन्तु
सत्यका
नित्य-निरन्तर
भाव है ।
तात्पर्य है
कि सत्तामात्रमें
भूत, भविष्य
और वर्तमान‒तीनोंका
ही सर्वथा
अभाव है ।
सत्ता कालसे
अतीत है । उस
कालातीत,
अवस्थातीत
सत्तामें
किसी कालविशेष
और
अवस्थाविशेषको
लेकर
कर्तृत्व और
भोक्तृत्वका
आरोप करना
अज्ञान है । साधक
भूतकालकी
स्मृतिमें
ऐसा आरोप कर
लेता है और
सुखी-दुःखी
होता है तो यह
उसकी बड़ी
भारी गलती,
असावधानी,
भूल है । कारण कि
यह
अहंकारविमूढात्माकी
स्मृति है, सत्ता
(तत्त्व) की
नहीं ।
स्वयं
सत्तामात्र
तथा
बोधस्वरूप
है । बोधका
अनादर
करनेसे हमने
असत्को
स्वीकार
किया और असत्को
स्वीकार
करनेसे
अविवेक हुआ ।
तात्पर्य है
कि बोधसे
विमुख होकर
हमने असत्को
सत्ता दी और
असत्को
सत्ता देनेसे
विवेकका
अनादर हुआ । वास्तवमें
बोधका अनादर
किया नहीं है,
प्रत्युत
अनादर है । अगर
ऐसा मानें कि
हमें हमने
बोधका अनादर
किया तो इससे
सिद्ध होगा
कि पहले
बोधका आदर था ।
परन्तु बोध
एक ही बार
होता है और
सदाके लिये होता
है‒‘यज्ज्ञात्वा
न
पुनर्मोहमेवं
यास्यसि पाण्डव’
(गीता ४/३५) । अतः
बोधका अनादर
किया नहीं,
प्रत्युत यह
अनादि और
सान्त है । विवेकका
आदर करनेसे,
उसको
महत्त्व
देनेसे अविवेक
मिट जाता है
और बोधकी
स्मृति
प्राप्त हो जाती
है‒‘नष्टो मोहः
स्मृतिर्लब्धा’
(गीता १८/७३) ।
अपनी
सत्ता
ज्यों-की-त्यों
रहती है । उस
सत्तामें
स्थिति ही
तत्त्वज्ञान
(बोध) है और उस
सत्ताके साथ
कुछ-न-कुछ
मिला लेना ही
अज्ञान है । अपनी
सत्तामें
अहम् नहीं
है; परन्तु
उसमें अहम्को
मिला लेनेसे
अहम्की
सत्ता दीखने
लगती है और
अपने
स्वतःसिद्ध
सत्ताका
अभाव दीखने
लगता है
अर्थात्
उससे
विमुखता हो
जाती है ।
अहम्के कारण
ही जीव है । अगर
अहम् न हो तो
जीव है ही
नहीं,
प्रत्युत
केवल ब्रह्म ही
है । बूँद तो
समुद्रमें
मिली हुई ही
है, केवल मान्यताके
कारण वह
समुद्रसे
अलग दीखती है । वास्तवमें
एक
जल-तत्त्वकी
ही सत्ता है ।
जल-तत्त्वमें
न बूँद है, न
समुद्र ।
स्वयंके
अभावका
अनुभव
किसीको भी
कभी नहीं होता,
पर संसारके
अभावका
अनुभव सबको
होता है । वास्तवमें
अभावरूपका
ही अभाव होता
है और अनुभवस्वरूपका
ही अनुभव
होता है ।
कूड़ा-करकट भी
नहीं है, झाड़ू
नहीं है और
झाड़ूसे कूड़ा-करकट
दूर करके
मकानको साफ
करनेका
उद्योग भी
नहीं है, केवल
मकान ही है ! इसी
तरह न संसार
है, न करण है और
न संसारको
हटानेका
उद्योग (साधन)
है, केवल
सत्तामात्र
है । सत्ता (‘है’)
के सिवाय और
सब कुछ माना
हुआ है ।
जिसने
अहंकारके
साथ
तादात्मय
माना है, वही
जीव ही
पाप-पुण्यका
कर्ता तथा
उनके फलका
भोक्ता बनता
है । जीव ही
सुखी और
दुःखी होता
है । जीव ही
बन्धनमें
पड़ता है और
मुक्त होता
है । परन्तु
सत्तास्वरूप
स्वयं न
कर्ता बनता
है, न भोक्ता; न
सुखी होता है,
न दुःखी; न
बँधता है, न
मुक्त होता
है ।
अहंकारको
सत्ता न दे तो
न अहंकार है, न
जीव (सत्ता
देनेवाला) है ।
दृश्यको
सत्ता न दे तो
न दृश्य है, न
दृष्टा है ।
सत्तास्वरूप
तत्त्व
स्वतः
ज्यों-का-त्यों
है । उसमें न
अनुभविता है,
न अनुभव है, न
अनुभाव्य ही
है; न ज्ञाता
है, न ज्ञान है, न
ज्ञेय ही है,
प्रत्युत
त्रिपुटीरहित,
अवस्थातीत
अनुभवमात्र,
ज्ञानमात्र
है ।
नारायण !
नारायण !!
नारायण !!!
‒ ‘जिन
खोजा तिन
पाइया’
पुस्तकसे
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