Sep
01
(गत ब्लॉगसे
आगेका)
प्रश्न‒सब कुछ भगवान्
ही हैं‒इसका अनुभव
करनेका साधन क्या
है ?
उत्तर‒इसका
अनुभव करनेके
लिये तीन साधन
है‒कर्मयोग, ज्ञानयोग
और भक्तियोग ।
कर्मयोगमें साधक
कर्ममें अकर्म
और अकर्ममें कर्म
देखता है‒
कर्मण्यकर्म
यह पश्येदकर्मणि
च कर्म यः ।
(गीता ४/१८)
ज्ञानयोगमें
साधक सम्पूर्ण
प्राणियोंमें
आत्मा और आत्मामें
सम्पूर्ण प्राणी
देखता है‒
सर्वभूतस्थमात्मानं
सर्वभूतानि चात्मनि
।
(गीता ६/२९)
भक्तियोगमें
साधक संसारमे
भगवान् और भगवान्में
संसार देखता है‒
यो मां पश्यति
सर्वत्र सर्वं
च मयि पश्यति ।
(गीता ६/३०)
कर्ममें
अकर्म और अकर्ममें
कर्म देखनेसे
कर्म नहीं रहता,
प्रत्युत ‘अकर्म’
शेष रहता है । सम्पूर्ण
प्राणियोंमें
आत्मा और आत्मामें
सम्पूर्ण प्राणी
देखनेसे प्राणी
नहीं रहते, प्रत्युत
‘आत्मा’ शेष रहता
है । संसारमें
भगवान् और भगवान्में
संसार देखनेसे
संसार नहीं रहता,
प्रत्युत ‘भगवान्’
शेष रहते हैं । अकर्म (निर्लिप्तता),
आत्मा और भगवान्‒तीनों
एक ही हैं । तात्पर्य
यह हुआ कि कर्मयोग,
ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों
योगोंसे परिणाममें
‘सब कुछ भगवान्
ही हैं’‒इसका अनुभव
हो जाता है ।
कर्मयोगी
स्वार्थभावका
त्याग करके केवल
दूसरोंके सुखके
लिये ही सब कर्म
करता है, इसलिये
उसकी सुखासक्ति
मिट जाती है । सुखासक्ति
मिटनेसे उसमें
मैं-पन नहीं रहता
। मैं-पन मिटनेसे
संसारकी स्वतन्त्र
सत्ताका अभाव
हो जाता है और एक
भगवान् ही रह
जाते हैं ।
ज्ञानयोगी
सत्-असत्के
विवेकको महत्त्व
देकर असत्का
निषेध करता है
और सत्में स्थित
होता है । विवेकके
द्वारा सत्में
स्थिति होनेपर
भी संसारकी सत्ता
सूक्ष्मरूपसे
रहती है; क्योंकि
साधन करते समय
तेजीका वैराग्य
नहीं था । तीव्र
वैराग्य न होनेसे
अनुभव होनेपर
भी रागका थोड़ा
अंश अथवा मैं-पन
सूक्ष्मरूपसे
रहता है । उस सूक्ष्म
मैं-पनके रहनेसे
ही दर्शनोंमें
भेद रहता है और
अपना दर्शन, सिद्धान्त,
साधन बढ़िया मालूम
देता है । यदि
तेजीका वैराग्य
हो जाय और वास्तविक
तत्त्वका साक्षात्कार
हो जाय तो यह सूक्ष्म
मैं-पन नहीं रहता
और ‘सब कुछ भगवान्
ही हैं’‒इसका अनुभव
हो जाता है ।*
भक्तियोगी
सबमें भगवान्को
और भगवान्में
सबको देखता है,
इसलिये उसकी दृष्टिमें
न मैं-मेरा रहता
है, न तू-तेरा रहता
है, न यह-इसका रहता
है और न वह-उसका
रहता है, प्रत्युत
केवल भगवान्
ही रहते हैं । साधारण
रीतिसे मैं हूँ,
जगत् है और भगवान्
हैं‒यह भाव रहता
है, पर भक्तमें
केवल भगवद्भाव
ही रहता है । इसलिये
उसमें मैं-पन सुगमतासे
नष्ट हो जाता है†
और ‘सब कुछ भगवान्
ही हैं’‒इसका अनुभव
हो जाता है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्
और उनकी भक्ति’
पुस्तकसे
______________
* विवेकमार्गमें
यदि साधक पहलेसे
ही इस बातको समझ
ले कि वास्तवमें
असत्की सत्ता
है ही नहीं‒‘नासतो विद्यते
भावः’ (गीता २/१६)तो बुद्धिमें बैठी
हुई असत्की सत्ता
बहुत सुगमतासे
हट जायगी ।
† भक्तिमार्गमें
यदि मैं-पन रहता
भी है तो ‘मैं भगवान्का
हूँ’‒ऐसा भाव रहनेसे
वह मैं-पन बाधक
नहीं होता‒‘अस अभिमान जाइ
जनि भोरे । मैं
सेवक रघुपति पति
मोरे ॥’ (मानस ३/११/११)। तात्पर्य है
कि भक्तका मैं-पन
भगवान्के आश्रित
रहता है, स्वतन्त्र
नहीं रहता । स्वतन्त्र
रहनेसे ही मैं-पन
बाधक होता है । |