।। श्रीहरिः ।।
 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
सप्तमीश्राद्ध
अखण्ड साधन
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
और तो क्या कहें; आप जिनको संत, महात्मा, विरक्त, त्यागी, अच्छे पुरुष मानते हैं, उनके साथ भी सम्बन्ध जोड़ना वास्तवमें सम्बन्ध तोड़नेके लिये है । यह बात कड़वी लगती है, पर बात यही है । गृहस्थाश्रम छोड़कर साधु बन गये और गुरुजीके साथ सम्बन्ध जोड़ा । गुरुजीके साथ सम्बन्ध रखनेके लिये थोड़े ही जोड़ा है । गुरुजी बता देंगे कि ‘भाई ! तुम्हारा सम्बन्ध सदा रहनेवाले असली स्वरूपके साथ है । इन सबके साथ सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है ।’ अत: सबसे सम्बन्ध तोड़नेके लिये ही इनसे सम्बन्ध जोड़ना है, न कि इनके साथ ही मर मिटना है । इस जोड़े हुए सम्बन्धको नित्य मान लेते हैं, यही गलती है । हमने जो शरीरके साथ सम्बन्ध मान लिया, इसीसे यह गलती हुई है । तो अब हम क्या करें ?
 
‘शरीर मैं हूँ’‒यह भाव होनेसे ही ‘मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैं’ यह बात समझमें नहीं आती । समझमें न आनेमें कारण शरीरके साथ तादाम्य सम्बन्ध रहता है । जीव वास्तवमें परमात्माका है और परमात्मा जीवके हैं‒यह इसका असली सम्बन्ध है । इसलिये जो अच्छे संत-महात्मा होते हैं, वे यही उद्देश्य रखते हैं, यही उपदेश देते हैं कि ‘तुम परमात्माके हो और परमात्मा तुम्हारे हैं । तुम यह शरीर नहीं हो ।’
 
जबतक शरीरके साथ ‘मैं’ पन बना हुआ है, तबतक साधन अखण्ड नहीं होगा । यह प्रश्र था कि ‘अखण्ड साधन कैसे हो ?जबतक आपका इस शरीरमें मैंपन और मेरापन है, तबतक साधन अखण्ड नहीं होगा । जरा ध्यान दे, अखण्ड क्या होता है और खण्ड क्या होता है ? जो मैंपन है, वह अखण्ड होता है । आपको कभी भी पूछा जाय, यही उत्तर होगा‒मैं हूँ । इसको आप चाहे याद रखें, या बिलकुल गाढ़ नींद आ जाय, चाहे व्यवहारमें बिलकुल भूल जायँ, परन्तु मैं अमुक वर्णका, अमुक आश्रमका हूँ, यह आपको बिना याद किये भी याद है, बिना स्मृतिके भी यह स्मरण है । आपको याद ही नहीं, होश ही नहीं कि किस काममें लगे हैं, पर जहाँ जरा सावधान हुए, वहाँ ‘मैं हूँ’ यह भाव है । फिर वही नाम, वही गाँव, वही वर्ण, वही आश्रम और अपनी वैसी-की-वैसी स्थिति दिखलायी पड़ेगी, स्वप्नमें भी । इसलिये ‘मैं’-के साथ जोड़ा हुआ सम्बन्ध अखण्ड होता है । मै’-का सम्बन्ध भगवान्‌के साथ न जोड़कर संसारके साथ जोड़े रखते है और भजन करना चाहते है, अखण्ड । असम्भव बात है । चाहे इस कान सुनें, चाहे उस कान । आप मानें या न माने । प्रमाण मिले चाहे न मिले । हमें तो भाई ! संदेह है नहीं । आपको संदेह हो तो आप भले ही न मानें । आपसे हमारा कोई आग्रह नहीं ।
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे