।। श्रीहरिः ।।


 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
योगः कर्मसु कौशलम्
 
 
          गीता समतामें ही साधनकी पूर्णता मानती है । यदि समता आ जाय तो सिद्ध पुरुषोंके सब लक्षण अपने-आप आ जाते हैं । यदि किसी साधकमें अन्य लक्षण तो हैं, पर समता नहीं है तो उसका साधन पूर्ण नहीं है । इसलिये गीतामें जहाँ-जहाँ सिद्धोंके लक्षण आये हैं, वहाँ-वहाँ समताकी मुख्यता आयी है । तात्पर्य है कि समता ही गीताका ध्येय है ।
 
        गीताका उपदेश दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे आरम्भ होता है । उपदेशके आरम्भमें भगवान्‌ने ग्यारहवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतक शरीरी-शरीर, सत्‌-असत्‌, नित्य-अनित्य विवेकका वर्णन किया । फिर इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्लोकतक क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्ध करनेकी आवश्यकताका वर्णन करके उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्‌ने कहा‒
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रुणु ।
                                                           (२/३९)
          ‘यह (अड़तीसवें श्लोकमें वर्णित) समता पहले सांख्ययोगमें कही गयी, अब तू इसको योगके विषयमें सुन ।’
 
          यहाँ पहली बार ‘बुद्धि’ शब्दका प्रयोग हुआ है । इससे पहले कहीं ‘बुद्धि’ शब्द नहीं आया । उन्तालीसवें श्लोकसे जो प्रकरण प्रारम्भ हुआ है, उसमें ‘समता’ को ही कहीं ‘बुद्धि’ शब्दसे (२/३९, ४९‒५१), कहीं ‘योग’ शब्दसे (२-४८,५०,५३) और कहीं ‘बुद्धियोग’ शब्दसे (२/४९) कहा गया है । अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान्‌ ‘योग’ की परिभाषा बताते हैं‒
योगस्थः  कुरु  कर्माणि  सङ्गं  त्यक्त्वा  धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
                                                               (२/४८)
          ‘हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समताको ही योग कहा जाता है ।’
 
           इसके बाद पचासवें श्लोकमें भगवान्‌ कहते हैं‒
बुद्धियुक्तो    जहातीह     उभे    सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
                                                           (२/५०)
          ‘बुद्धि (समता) से युक्त मनुष्य वर्तमानमें ही पुण्य और पाप दोनोंसे रहित (निर्लिप्त) हो जाता है । अतः तू योग (समता) में लग जा; क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है ।’
 
          इस श्लोकमें आये ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ पदोंपर विचार करें तो इनके दो अर्थ लिये जा सकते हैं‒
(१) ‘कर्मसु कौशलं योगः’ अर्थात्‌ कर्मोंमें कुशलता ही योग है ।
(२) ‘कर्मसु योगः कौशलम्’ अर्थात्‌ कर्मोंमें योग ही कुशलता है ।
 
अगर पहला अर्थ लिया जाय कि कर्मोंमें कुशलता ही योग हैतो जो बड़ी कुशलतासे, सावधानीसे चोरी, ठगी आदि कर्म करता है, उसका कर्म ‘योग’ हो जायगा ! परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है और यहाँ निषिद्ध कर्मोंका प्रसंग भी नहीं है । अगर यहाँ शुभ कर्मोंको ही कुशलतापूर्वक करनेका नाम योग मानें तो मनुष्य कुशलतापूर्वक, सांगोपांग किये हुए शुभ कर्मोंके फलसे बँध जायगा‒‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५/१२); अतः उसकी स्थिति समतामें नहीं रहेगी और उसके दुःखोंका नाश नहीं होगा ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे