।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
योगः कर्मसु कौशलम्
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
शास्त्रोंमें आया है‒‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’ ‘कर्मोंसे मनुष्य बँध जाता है ।’ अतः जो कर्म स्वभावसे ही मनुष्यको बाँधनेवाले हैं, वे ही मुक्ति देनेवाले हो जायँ‒यही वस्तुतः कर्मोंमें कुशलता है । मुक्ति योग (समता) से होती है, कर्मोंमें कुशलतासे नहीं । कर्म कितने ही बढ़िया हों, उनका आरम्भ और अन्त होता है और उनके फलका भी संयोग तथा वियोग होता है, उसके द्वारा मुक्तिकी प्राप्ति कैसे होगी ? अतः महत्त्व योगका है, कर्मोंका नहीं ।
 
अगर उपर्युक्त अर्थ ही ठीक माना जाय तो भी ‘कुशलता’ के अन्तर्गत समता, निष्कामभावको ही लेना पड़ेगा अर्थात्‌ कर्मोंमें कुशलता ही योग है तो ‘कुशलता’ क्या है ? इसके उत्तरमें यह कहना ही पड़ेगा कि योग (समता) ही कुशलता है । ऐसी स्थितिमें ‘कर्मोंमें योग ही कुशलता है’ ऐसा सीधा अर्थ क्यों न ले लिया जाय ? जब उपर्युक्त पदोंमें ‘योग’ शब्द आया ही है, तो फिर ‘कुशलता’ का अर्थ योग लेनेकी जरूरत ही नहीं है !
 
अगर प्रकरण पर विचार करें तो योग (समता) का ही प्रकरण चल रहा है, कर्मोंकी कुशलताका नहीं । भगवान्‌ ‘समत्वं योग उच्यते’ (२/४८) कहकर योगकी परिभाषा भी बता चुके हैं । अतः इस प्रकरणमें योग ही विधेय है, कर्मोंमें कुशलता विधेय नहीं है । योग ही कर्मोंमें कुशलता है अर्थात्‌ कर्मोंको करते हुए हृदयमें समता रहे, राग-द्वेष न रहें‒यही कर्मोंमें कुशलता है । इसलिये ‘योगः कर्मसु कौशलम्’‒यह योगकी परिभाषा नहीं है; किन्तु योगकी महिमा है ।
 
इसी (पचासवें) श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने कहा है कि समतासे युक्त मनुष्य पुण्य और पाप दोनोंसे रहित हो जाता है । यदि मनुष्य पुण्य और पाप दोनोंसे रहित हो जाय तो फिर कौन-सा कर्म कुशलतासे किया जायगा ?
 
गीतामें ‘कुशल’ शब्दका प्रयोग अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी हुआ है‒
न द्वेष्ट्यकुशलं    कर्म   कुशले  नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥
 
       ‘जो अकुशल कर्मसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता, वह त्यागी, बुद्धिमान्‌, सन्देहरहित और अपने स्वरूपमें स्थित है ।’
 
       यहाँ ‘अकुशल कर्म’ के अन्तर्गत सकामभावसे किये जानेवाले और शास्त्रनिषिद्ध कर्म आते हैं तथा ‘कुशलकर्म’ के अन्तर्गत निष्काम भावसे किये जानेवाले शास्त्रविहित कर्म आते हैं । अकुशल और कुशल कर्मोंका तो आदि-अन्त होता है पर योग (समता) का आदि-अन्त नहीं होता । बाँधनेवाले राग-द्वेष ही हैं, कुशल-अकुशल कर्म नहीं । अतः रागपूर्वक किये गये कर्म कितने ही श्रेष्ठ क्यों न हों, वे बाँधनेवाले ही हैं; क्योंकि उन कर्मोंसे ब्रह्मलोककी प्राप्ति भी हो जाय तो भी वहाँसे लौटकर पीछे आना पड़ता है‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन’ (गीता ८/१६) । इसलिये जो मनुष्य अकुशल कर्मका त्याग द्वेषपूर्वक नहीं करता और कुशल कर्मका आचरण रागपूर्वक नहीं करता, वही वास्तवमें त्यागी, बुद्धिमान्‌, सन्देहरहित और अपने स्वरूपमें स्थित है*
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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                                                    * दोषबुद्ध्योभयातीतो   निषेधान्न  निवर्तते ।
गुणबुद्ध्या च विहितं न करोति यथार्भकः ॥
                                                                                                (श्रीमद्भा॰ ११/७/११)
      ‘जो मनुष्य अनुकूलता-प्रतिकूलतारूप द्वन्द्वोंसे ऊँचा उठ जाता है, वह शास्त्रनिषिद्ध कर्मोंका त्याग करता है, पर द्वेषबुद्धिसे नहीं और शास्त्रविहित कर्मोंको करता है, पर गुणबुद्धिसे अर्थात्‌ रागपूर्वक नहीं । जैसे घुटनोंके बलपर चलनेवाले बच्चेकी निवृत्ति और प्रवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक नहीं होती, ऐसे ही उभयातीत मनुष्यकी निवृत्ति और प्रवृत्ति भी राग-द्वेषपूर्वक नहीं होती । (बच्चेमें तो अज्ञता रहती है, पर राग-द्वेषसे रहित मनुष्यमें विज्ञता रहती है ।)