(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
यहाँ
शंका हो सकती
है–‘क्या हम
धन आदिका
उपयोग भी न
करें ?’ इसका
उत्तर यह है–‘आप
पवित्र
वस्तुओंका
उपयोग कर
सकते हैं ।’
यज्ञशिष्ट–यज्ञसे
बची हुई सामग्री
पवित्र होती
है । केवल
अपने लिये
भोजन
पकानेवालोंके
सम्बन्धमें
भगवान् कहते
हैं–‘वे पापी
पापको ही
खाते हैं’–
भुतेञ्जते
ते त्वघं
पापा ये
पचन्त्यात्मकारणात्
।
(गीता
३/१३)
श्रुति
कहती हैं–
केवलाघी
भवति
केवलादी ।
अत: सबको
देनेका भाव
मनमें
होनेपर सबको
देनेकी
चेष्टा भी
होगी तथा
स्वयं भी
निर्वाहके
लिये
अन्न-वस्त्र
आदिका उपयोग
कर सकेंगे ।
केवल अन्न-वस्त्रकी
ही बात नहीं,
उत्तम
बातें भी
आपको यदि
ज्ञात हैं तो
उनका उपयोग
भी सबके
हितके लिये
किया जाय । यही भाव
मनमें रहना
चाहिये–‘सबका कल्याण
कैसे हो ?’ सबके हितकी
रति भगवान्को
प्राप्त करा
देती है । भगवान्
और भगवान्के
भक्त बिना
कारण हित
करनेवाले
हैं–‘हेतु
रहित जग जुग
उपकारी ।’ इसी
प्रकार यदि
किसीके
हृदयमें
सबके हितका भाव
हो गया तो
उसका कल्याण
निश्चित है;
कारण,
ऐसे लोगोंके
लिये भगवान्
कहते हैं–‘मम
साधर्म्यमागताः
।’ (गीता १४/)
–वे मेरे
सहधर्मी बन
जाते हैं ।
तुच्छ
वस्तुओंके
साथ सम्बन्ध
जोड़नेसे हम
तुच्छ हो गये
हैं; सर्वसुहद्
परमात्माके
साथ सम्बन्ध
जोड़नेसे हम
ऊँचे हो
जायेंगे ।
भगवान्के
लगाया हुआ
भोग शुद्ध,
पवित्र
हो जाता है ।
उनके यदि
बतासा-जैसी
साधारण
वस्तुका भी
भोग लगाया
जाय तो उसे
लेनेके लिये
बड़े-बड़े धनी-मानी
भी हाथ पसार
देंगे ।
क्यों ? क्या वे
मीठेके भूखे
हैं ? क्या
उन्हें
बतासे मिलते
नहीं ? फिर बात
क्या है ?
भगवान्के
अर्पण
करनेसे
वस्तु परम
पवित्र हो
जाती है,
उसका
महत्त्व बढ़
जाता है । इसी
प्रकार जो सब
कुछ भगवान्को
अर्पण कर
देता है
अर्थात् सबपरसे
माना हुआ
अपनापन उठा
लेता है, उसका सब-का-सब
पवित्र हो
जाता है ।
कैसी सरल और सुगम
बात है । केवल भाव
बदल देना है ।
भावके
परिवर्तन
करते ही बड़ा
अन्तर हो
जाता है । व्यापारी
लोग जानते
हैं कि खरीदी
हुई वस्तु जिससे
खरीदी है
उसके पास ही
क्यों न पड़ी
रहे, उसका भाव
बढ़ जानेसे हम
धनी हो जाते
हैं और भाव गिर
जानेसे हम
दीवालिये हो
जाते हैं ।
बाजारके
भावको बदलना
तो हमारे
हाथकी बात
नहीं है,
पर
अपने मनके
भावको बदलना
तो हमारे
हाथमें है ।
अत: मनके
भावको बदलकर–उसे ऊँचा
करके हम
मालामाल–कृतार्थ
हो सकते हैं;
इसके
लिये ही हमें
यह मानव-शरीर
मिला है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘सर्वोच्च
पदकी
प्राप्तिका
साधन’
पुस्तकसे
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