Dec
25
(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक काल्पनिक सत्ता होती है और एक वास्तविक सत्ता होती है । पैदा होनेके बाद होनेवाली सत्ता काल्पनिक है और पैदा न होनेवाली अर्थात् नित्य रहनेवाली सत्ता वास्तविक है । जैसे, बालक पैदा हुआ, तो पैदा होनेके बाद‘बालक है’ ऐसा दीखता है । पैदा होनेसे पहले वह बालक नहीं था । बालक होनेके बाद फिर वह जवान हो जाता है । इस प्रकार यह बदलनेवाली काल्पनिक सत्ता प्रकृतिकी है । मूलमें परमात्मतत्त्वकी वास्तविक सत्ता है, जो कभी बदलनेवाली नहीं है । परमात्मतत्त्वका जिज्ञासु उस न बदलनेवाली सत्ताको देखता है और संसारी आदमी बदलनेवाली सत्ताको देखता है, एककी दृष्टि पारमार्थिक है और एककी दृष्टि सांसारिक है । जैसे स्थूल दृष्टिसे माँ, बहन और स्त्री एक समान ही दीखती है, पर भाव-दृष्टिसे देखें तो माँ, बहन और स्त्री‒तीनों अलग-अलग दीखती हैं । बाहरकी स्थूल दृष्टि तो पशुकी दृष्टि है, मनुष्यकी दृष्टि नहीं । साधककी दृष्टि तत्त्वपर रहती है, इसलिये वह सब जगह एक परमात्माको ही देखता है‒
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
(गीता ६ । ३०)
‘जो सबमें मेरेको देखता है और सबको मेरेमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।’
एक बच्चेने माँसे कहा कि ‘माँ ! मेरेको गुड़ चाहिये ।’माँने कहा कि ग्वार ले जा और बदलेमें बनियेके यहाँसे गुड़ ले आ । बच्चा घरसे ग्वार ले गया और बनियेसे बोला कि मुझे गुड़ चाहिये । बनियेने तौलकर ग्वार ले लिया और गुड़ तौलकर दै दिया । बच्चा सोचने लगा कि बनिया कितना मूर्ख है ! ग्वार‒जैसी चीज पशुओंके खानेकी है, मनुष्यके कामकी नहीं है, उसके बदलेमें यह मेरेको गुड़ देता है । इस तरह ग्वार और गुड़पर दृष्टि रहनेके कारण बच्चेको बनिया मूर्ख दीखता है । परन्तु बनियेकी दृष्टि पैसोंपर है कि ग्वार कितने पैसोंका है और गुड़ कितने पैसोंका है । बनिया दो तरहसे पैसे कमाता है‒माल लेता है तो सस्ता लेता है और बेचता है तो मँहगा बेचता है । अत: उसने ग्वारमें नफा अलग लिया और गुड़में नफा अलग लिया । बनियेको ग्वार और गुड़से क्या मतलब ? उसको तो पैसा पैदा करना है । ऐसे ही साधककी दृष्टि परमात्मतत्त्वपर होती है । सबमें जो परमात्मा है,उसीको प्राप्त करना है, संसारसे क्या मतलब ?
साधकको व्यवहार तो यथायोग्य करना है, पर महत्त्व परमात्मतत्त्वको ही देना है, व्यवहारको नहीं । व्यवहारमें किसीने आदर कर दिया तो क्या हो गया ? किसीने निरादर कर दिया तो क्या हो गया ? आदर करनेवाला तो हमारा पुण्य क्षीण करता है और निरादर करनेवाला हमारा पाप नष्ट करता है । हमारा लाभ किसमें है‒पाप रखनेमें कि नष्ट करनेमें ? जो हमें दुःख देता है, अपमान करता है, निन्दा करता है, तिरस्कार करता है, वह हमारे पापोंका नाश करता है । जो हमारा आदर-सत्कार करता है, वाह-वाह करता है,वह हमारे पुण्योंका नाश करता है । हम पापोंका नाश करनेका उद्योग करते हैं, पर निरादर करनेवाला हमारे पापोंका नाश स्वत: ही कर रहा है । यह उसकी कितनी कृपा है ! उसका हमारेपर कृपा करनेका आशय नहीं है, पर वह क्रिया तो हमारे लाभकी ही कर रहा है । वह हमारा हितैषी नहीं है, पर किया तो हमारे हितकी ही कर रहा है । वह जो करता है, वह हमारे लिये ठीक ही होगा, बेठीक हो ही नहीं सकता ।
एक मार्मिक बात है कि साधकके लिये कोई परिस्थिति अनिष्टकारी होती ही नहीं । संसारका जितना व्यवहार है, वह सब-का-सब साधन-सामग्री है । सुखदायी-दुःखदायी, अनुकूल-प्रतिकूल जो कुछ सामने आता है, वह सब साधन-सामग्री है । इसलिये साधकको सावधान रहना चाहिये । सावधानी ही साधन है । साधक वह होता है, जो हर समय सावधान रहता है ।
दिलमें जाग्रत रहिये बन्दा ।
हेत प्रीत हरिजन सुं करिये, परहरिये दुखद्वन्द्वा ॥
जब अच्छा और मन्दा होता है, राग और द्वेष होता है तो हम जाग्रत् कहाँ रहे ! अत: मैं साधक हूँ और मेरे साध्य परमात्मा हैं‒इसकी जागृति रखते हुए साध्यकी प्राप्तिके लिये यथायोग्य बर्ताव करना है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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