Dec
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अपने स्वरूपमें स्थित होनेकी बात जहाँ आती है,वहाँ हम उन्हीं मन और बुद्धिसे स्थित होना चाहते हैं, जिनमें संसारके संस्कार पड़े हैं । वे मन और बुद्धि संसारकी तरफ ही दौड़ते हैं । हमारे पास मन और बुद्धि लगानेके अलावा कोई उपाय है नहीं । ऐसी स्थितिमें हम मन-बुद्धिसे कैसे अलग हों?
हम मन-बुद्धिको परमात्मामें लगाते हैं तो वे संसारकी तरफ जाते हैं । इसमें मुख्य बात यह है कि हमारे भीतरमें संसारका महत्त्व जँचा हुआ है । उत्पत्ति-विनाशशीलका जो महत्त्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ है, उसको हमने बहुत ज्यादा आदर दे दिया है‒यह बाधा हुई है । इस बाधाको विचारके द्वारा निकाल दो तो यह ‘ज्ञानयोग’ हो जायगा । इससे पिण्ड छुड़ानेके लिये भगवान्की शरण लेकर पुकारो तो यह‘भक्तियोग’ हो जायगा । जितनी वस्तु अपने पास है, उसको व्यक्तिगत न मानकर दूसरोंकी सेवामें लगाओ और कर्तव्य-कर्म करो तो अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये करो तो यह ‘कर्मयोग’ हो जायगा । इन तीनोंमें जो आपको सुगम दीखे, वह शुरू कर दो । वस्तुओंको व्यक्तियोंकी सेवामें लगाओ । समाधि भी सेवामें लगा दो । अपने शरीरको,मनको, बुद्धिको सेवामें लगा दो । केवल दूसरोंको सुख पहुँचाना है और स्वयं बिलकुल अचाह होना है । जड़की कोई भी चाह रखोगे तो बन्धन रहेगा, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । यह बात खास जँच जानी चाहिये कि संसारकी कोई भी चाह रखोगे तो दुःखसे, बन्धनसे कभी बच नहीं सकते; क्योंकि दूसरोंकी चाहना रखेंगे, दूसरोंसे सुख चाहेंगे तो पराधीन होना ही पड़ेगा और ‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’ (मानस १ । १०२ । ३) । कुछ भी चाह मत रखो तो दुःख मिट जायगा ।
बुद्धि संसारमें जाती है तो उसको जाने दो । बुद्धि आपकी है कि आप बुद्धिके हो ? स्वयं विचार करो, सुन करके नहीं । आपकी बुद्धि संसारमें जाती है तो आप बुद्धिमें अपनापन मत रखो । बुद्धि तो आपकी वृत्ति है । उसको चाहे जहाँ नहीं लगा सको तो उससे विमुख हो जाओ कि मैं बुद्धिका द्रष्टा हूँ, बुद्धिसे बिलकुल अलग हूँ । स्वयं बुद्धिको जाननेवाला है । बुद्धि एक करण है और परमात्मतत्त्व करण-निरपेक्ष है । पढ़ाईके समय भी मेरी यह खोज रही है कि जीवका कल्याण कैसे हो ? मेरेको जब यह बात मिली कि परमात्मतत्त्व करण-निरपेक्ष है, तब मुझे बड़ा लाभ हुआ,बड़ी प्रसन्नता हुई । आप इस बातपर आरम्भमें ही ध्यान दो तो बड़ा अच्छा रहे ! तत्त्व वृत्तिके कब्जेमें नहीं आयेगा । प्रकृतिकी वृत्ति प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको कैसे पकड़ेगी ? अत: यह विचार आप पक्का कर लो कि तत्त्वकी प्राप्ति करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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