(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे भाई-बहन सत्संगमें आते हैं तो सबसे पहले उनका यह विचार होता है कि हमें सत्संगमें चलना है । फिर किस तरह चलना है, बससे चलना है, टैक्सीसे चलना है,साइकिलसे चलना है या पैदल चलना है‒यह सब प्रबन्ध हो जाता है । सत्संगमें जानेके लिये तो दूसरेकी सहायता भी ले सकते हैं; पर वहाँ जानेका विचार तो खुदको ही करना पड़ेगा । ऐसे ही हमारा यह विचार बन जाय कि अब हमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करनी है । दूसरे लोग क्या करते हैं,क्या नहीं करते‒इससे हमारा कोई मतलब न रहे ।
तेरे भावें जो करौ, भलौ बुरौ संसार ।
नारायन तू बैठि कै, अपनौ भुवन बुहार ॥
संसार अच्छा करे या बुरा करे, हमें उससे क्या मतलब ? हमें तो अपना असली काम करना है । परमात्म-प्राप्तिके सिवाय कोई भी काम स्थायी नहीं है । कोई धन कमाता है, कोई यश कमाता है, कोई शरीरको ठीक करता है,कोई नीरोगताके पीछे लगा है, पर ये काम सिद्ध होनेवाले नहीं हैं । अगर हो भी जायें तो इन सबका अन्त होगा ।परन्तु परमात्मप्राप्ति होगी तो वह सदाके लिये होगी, उसका अन्त नहीं होगा ।
एक मार्मिक बात है कि सब-के-सब मनुष्य परमात्मप्राप्तिके अधिकारी हैं । भगवान्ने कहा है‒
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनय ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥
(गीता ९ । ३०‒३३)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । कारण कि उसने निश्चय बहुत श्रेष्ठ और अच्छी तरह कर लिया है । वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरे भक्तका विनाश (पतन) नहीं होता ।’
‘हे पार्थ ! जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं । जो पवित्र आचरणवाले ब्राह्मण और ऋषिस्वरूप क्षत्रिय भगवान्के भक्त हों, वे परमगतिको प्राप्त हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है । इसलिये इस अनित्य और सुखरहित शरीरको प्राप्त करके तू मेरा भजन कर ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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