(गत ब्लॉगसे आगेका)
विवेकके बिना केवल क्रियासे अन्तःकरणकी शुद्धि नहीं होती* । शक्ति विवेकमें है, क्रियामें नहीं । क्रिया करनेमें करणकी मुख्यता रहेगी तो करणका आदर होगा । करणका आदर (महत्त्व) ही अन्तःकरणकी अशुद्धि है ।
अन्तःकरणकी अशुद्धि वास्तवमें कर्ताकी अशुद्धि है;क्योंकि कर्ताका दोष ही करणमें आता है । जैसे, मनुष्य चोरी करनेसे चोर नहीं बनता, प्रत्युत चोर बनकर चोरी करता है । चोरी करनेसे उसका चोरपना दृढ़ होता है । अगर कर्ताकी नीयत शुद्ध हो तो वह चोरी नहीं कर सकता । अत: करणको शुद्ध करनेकी उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी कर्ताको शुद्ध होनेकी आवश्यकता है । अगर करणको शुद्ध करेंगे तो परिणाममें क्रिया शुद्ध होगी, कर्ता कैसे शुद्ध होगा ? जैसे,कलम बढ़िया होगी तो लेखन-कार्य बढ़िया होगा, लेखक कैसे बढ़िया हो जायगा ? कर्ता शुद्ध होता है‒अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर और अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है-विवेकका आदर करनेसे ।
एक मार्मिक बात है कि अन्तःकरण अशुद्ध होनेपर भी विवेक जाग्रत् हो सकता है । इसीलिये गीतामें आया है कि पापी-से-पापी और दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी ज्ञान और भक्ति प्राप्त कर सकता है† । तात्पर्य है कि अपने कल्याणका दृढ़ उद्देश्य हो जाय तो पूर्वकृत पाप विवेककी जागृतिमें बाधक नहीं हो सकते । पाप तभी बाधक हो सकते हैं, जब विवेक कर्मोंका फल हो । परन्तु विवेक कर्मोंका फल है ही नहीं । कर्मोंके साथ विवेकका सम्बन्ध है ही नहीं । अत: विवेकका पापोंसे विरोध नहीं है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह अपने विवेकको जाग्रत् करे ।
प्रश्न‒विवेक कैसे जाग्रत् होता है ?
उत्तर‒विवेक दो चीजोंसे जाग्रत् होता है‒सत्संगसे‡और दुःख (आफत) से । सत्संग परमात्मामें लगाता है और दुःख संसारसे हटाता है । परमात्मामें लगना भी योग है‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) और संसारसे हटना भी योग है ‘तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योग सञ्ज्ञितम्’ (गीता ६ । २३) ।
रामचरितमानसमें आया है‒‘बिनु सतसंग बिबेक न होई’ (१ । ३ । ४) । इसका तात्पर्य यह है कि सत्संगके बिना विवेक जाग्रत् नहीं होता । सत्संगसे बहुत विलक्षण लाभ होता है और स्वाभाविक शुद्धि होती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
______________
* अन्तःकरणकी शुद्धि क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत भाव और विवेकसे होती है । इसलिये कर्मयोगमें निष्कामभावसे, ज्ञानयोगमें विवेकसे और भक्तियोगमें प्रेमभावसे अन्तःकरण स्वत: शुद्ध हो जाता है । सकामभावसे की गयी क्रियासे भी अन्तःकरणमें एक तरहकी शुद्धि आती है, पर वह शुद्धि उस क्रियाका फल भोगनेमें ही काम आती है, पारमार्थिक उन्नतिमें काम नहीं आती ।
† अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
(गीता ४ । ३६)
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
(गीता ९ । ३०)
‡ सच्छास्त्रोंका अध्ययन करना भी सत्संग है ।
|