(गत ब्लॉगसे आगेका)
इतना ही नहीं, पापी-से-पापी मनुष्य भी भक्तिका अधिकारी हो सकता है‒
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
(गीता ९ । ३०-३१)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । कारण कि उसने निश्चय बहुत श्रेष्ठ और अच्छी तरह कर लिया है । वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरे भक्तका विनाश (पतन) नहीं होता ।’
तात्पर्य है कि भगवान्का अंश होनेसे जीवमात्रमें भगवान्की तरफ चलनेका, भगवान्को प्राप्त करनेका अधिकार, स्वतन्त्रता और सामर्थ्य स्वतः है । प्रत्येक जीव स्वरूपसे नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूप है‒‘अयमात्मा ब्रह्म’,‘तत्त्वमसि’ । अतः जीवमात्र स्वरूप-बोधमें अधिकारी,स्वतन्त्र और समर्थ है ।
वर्ण, आश्रम आदिको लेकर ऐसा मानना कि अमुक वर्ण अथवा आश्रमका मनुष्य तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका अधिकारी है और अमुक वर्ण अथवा आश्रमका मनुष्य तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका अधिकारी नहीं है‒यह शास्त्र और युक्ति-संगत नहीं दीखता । उत्थान और पतन प्रत्येक वर्ण-आश्रममें हो सकता है । प्रत्येक वर्ण-आश्रमका मनुष्य तत्त्वज्ञान प्राप्त कर सकता है । इतना ही नहीं, वह तत्त्वज्ञान देनेका अधिकारी भी हो सकता है‒
प्राप्य ज्ञानं ब्राह्मणात् क्षत्रियाद् वा
वैश्याच्छूद्रादपि नीचादभीक्ष्याम् ।
श्रद्धातव्यं श्रद्द्धानेन नित्यं
न श्रद्धिनं जन्ममृत्यू विशेताम् ॥
(महा॰ शान्ति॰ ३१८ । ८०)
‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा नीच वर्णमें उत्पन्न हुए मनुष्यसे भी यदि ज्ञान मिलता हो तो उसे प्राप्त करके मनुष्यको सदा उसपर श्रद्धा रखनी चाहिये । जिसके भीतर श्रद्धा है, उस मनुष्यमें जन्म-मृत्युका प्रवेश नहीं हो सकता ।’
उदाहरणार्थ, वेदव्यासजीके पुत्र शुकदेवजी ज्ञानप्राप्तिके लिये राजर्षि जनकके पास गये थे । ब्रह्मविद्या प्राप्त करनेके लिये एक साथ छः ऋषि महाराज अश्वपतिके पास गये थे । इस प्रसंमें शंकराचार्यजी महाराजके ये वचन ध्यान देनेयोग्य हैं‒
‘यत एवं महाशाला महाश्रोत्रिया ब्राह्मणाः सन्तो महाशालत्वाद्यभिमान हित्वा समिद्भारहस्ता जातितो हीनं राजानं विद्यार्थिनो विनयेनोपजग्मुः’ (छान्दोग्य॰ ५ । ११ । ७ का भाष्य) ।
‘इस प्रकार महागृहस्थ और परमश्रोत्रिय ब्राह्मण होनेपर भी वे महागृहस्थत्व आदिके अभिमानको छोड़कर,हाथोंमें समिधाएँ लेकर तथा विद्यार्थी बनकर अपनेसे हीन जातिवाले राजाके पास विनयपूर्वक गये थे । इसलिये ब्रह्मविद्या प्राप्त करनेकी इच्छावाले अन्य पुरुषोंको भी ऐसा ही होना चाहिये ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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