।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
मुक्तिमें सबका समान अधिकार



(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक नीतिशास्त्र होता हैएक धर्मशास्त्र होता है और एक मोक्षशास्त्र होता है । नीतिशास्त्रमें स्वार्थसिद्धि है, धर्मशास्त्रमें विधि-निषेध है और मोक्षशास्त्रमें सत्-असत्‌का विवेक है । नीतिसे धर्म और धर्मसे मोक्षशास्त्र बलवान् होता है । वर्ण-आश्रमकी व्यवस्था धर्मशास्त्रमें है, मोक्षशास्त्रमें नहीं । वर्णआश्रम आदि सब भेद असत्‌के हैं । सत्‌का कोई भेद नहीं है‒‘नेह नानास्ति किञ्चन’ ( कठ २ । १ । ११बृहदा४ । ४ । १९)‘एकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य ६ । २ । १) ।जहाँ सत्-असत्‌का विवेक होगावहाँ तो असत्‌का त्याग ही मुख्य रहेगा[*] । अतः चाहे ब्राह्मणका शरीर होचाहे शूद्रका शरीर होलोक-व्यवहारमें तो उनमें फर्क रहेगापर परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कोई फर्क रहेगा ही नहीं । कारण किपरमात्मतत्त्वकी प्राप्ति शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेपर होती है । जिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना हैवह चाहे बढ़िया हो या घटियाउससे क्या मतलब ?

कर्मोंके अनुसार जीव नीच योनिसे क्रमशः शूद्रवैश्य,क्षत्रिय और ब्राह्मण भी बन सकता है और क्रमशः ब्राह्मण,क्षत्रियवैश्यशूद्र तथा नीच योनिमें भी जा सकता है । ऊँच-नीचका यह क्रम (गति) कर्मानुसार फलभोगके लिये ही है । मुक्तिमें ऐसा कोई क्रम नहीं है । अतः शास्त्रमें कहीं किसी एक वर्ण-आश्रमको प्राप्त होकर मुक्तिका अधिकारी होनेकी बात आयी है तो वह कोई सिद्धान्त नहीं हैप्रत्युत वह व्यक्ति-विशेषके लिये ही कही गयी बात है । इतिहासके आधारपर सत्यका निर्णय नहीं हो सकताक्योंकि किसने किस परिस्थितिमें किया और क्यों किया तथा किस परिस्थितिमें कुछ कहा और क्यों कहा‒इसका पूरा पता चलता नहीं ! अतः इतिहासमें आयी अच्छी बातोंसे मार्ग-दर्शन तो हो सकता हैपर सत्यका निर्णय विधि-निषेधसे ही होता है । इतिहाससे विधि प्रबल है और विधिसे भी निषेध प्रबल है । अतः यों करें अथवा यों करें‒इस विषयमें इतिहासको प्रमाण न मानकर शास्त्रके विधि-निषेधको ही प्रमाण मानना चाहिये ।

कलियुगमें ठीक विधि-विधानसे ब्रह्मचर्यगृहस्थ और वानप्रस्थ-आश्रमका पालन करके संन्यास-आश्रममें जाना तथा संन्यास-आश्रमके नियमोंका पालन करना बहुत कठिन है । इसलिये शास्त्रमें संन्यासको कलिवर्ज्य (कलियुगमें वर्जित) माना गया है । अगर ऐसा मानें कि संन्यासी हुए बिना मनुष्य कल्याण (मोक्ष) का अधिकारी नहीं हो सकता,तो फिर कलियुगमें किसीका कल्याण होगा ही नहींजब कि कलियुगमें अन्य युगोंकी अपेक्षा कल्याण होना बहुत सुगम बताया गया है ! 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)     
 ‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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[*] सुनहु  तात  माया कृत   गुन  अरु  दोष  अनेक ।
     गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥
                                                                                     (मानस ७ । ४१)

गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितः ।
                                                                        (श्रीमद्धा११ । ११ । ४५)

अग्निहोत्रं गवालम्भं    संन्यासं पलपैतृकम् ।
                                    देवराच्च सुतोत्पत्तिः कलौ पञ्च विवर्जयेत् ॥
                                                                 (विष्णुपुराण ६ । २ । १५)

 यत्कृते दशभिर्वर्षैस्त्रेतायां  हायनेन तत् ।
    द्वापरे तच्च मासेन ह्यहोरात्रेण तत्कलौ ॥
                                                                               (विष्णुपुराण ६ । २ । १५)

‘जो फल सत्ययुगमें दस वर्ष तपस्याब्रह्मचर्यजप आदि करनेसे मिलता हैउसे मनुष्य त्रेतामें एक वर्षद्वापरमें एक मास और कलियुगमें केवल एक दिन-रातमें प्राप्त कर लेता है ।’

                            कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ।
                            गाइ राम गुन गन बिमल  भव तर बिनहिं प्रयास ॥
                                                                                (मानस ७ । १०३ क)