(गत ब्लॉगसे आगेका)
विष्णुपुराणमें एक कथा आती है । एक बार अनेक ऋषि मिलकर श्रेष्ठताका निर्णय करनेके लिये वेदव्यासजी महाराजके पास गये । वेदव्यासजीने आदर-सत्कारपूर्वक उन सबको बैठाया और स्वयं गंगामें स्नान करने चले गये । स्नान करते हुए उन्होंने कहा कि ‘कलियुग, तुम धन्य हो ! शूद्रों,तुम धन्य हो ! स्त्रियों, तुम धन्य हो !’* जब वे स्नान करके वापिस आये, तब ऋषियोंने उनसे कहा कि महाराज ! आपने कलियुगको, शूद्रोंको और स्त्रियोंको धन्यवाद क्यों दिया ?‒यह हमारी समझमें नहीं आया ! वेदव्यासजीने कहा किकलियुगमें अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे शूद्रों और स्त्रियोंका कल्याण जल्दी और सुगमतासे हो जाता है, इसलिये ये तीनों धन्यवादके पात्र हैं ।
जो वर्ण-आश्रममें जितना ऊँचा होता है, उसके लिये धर्म-पालन भी उतना ही कठिन होता है और नीचे गिरनेपर चोट भी उतनी ही अधिक लगती है ! ऊँचा कहलानेके कारण देहाभिमान भी अधिक होता है; अतः कल्याण भी कठिनतासे होता है ‒
नीच नीच सब तर गये, राम भजन लवलीन ।
जातिके अभिमान से, डूबे सभी कुलीन ॥
जात नहीं जगदीश के, जन के कैसे होय ।
जात पाँत कुल कीच में, बंध मरो मत कोय ॥
तात्पर्य यह हुआ कि लौकिक व्यवहार (भोजन,विवाह आदि) में तो जातिकी, वर्ण-आश्रमकी ही प्रधानता है,पर भगवत्प्राप्तिमें भाव और विवेककी प्रधानता है । अतः ऊँचे वर्ण, आश्रम आदिसे संसारमें अधिकार मिल सकता है,पर भगवान्को प्राप्त करनेका अधिकार केवल भगवान्के सम्बन्धसे ही मिलता है । जैसे सब-के-सब बालक माँकी गोदीमें जानेके समान अधिकारी हैं, ऐसे ही भगवान्का अंश होनेसे सब-के-सब जीव भगवान्को प्राप्त होनेके समान अधिकारी हैं । जीव-मात्रका भगवान्पर पूरा अधिकार है ।अतः भगवत्प्राप्तिके लिये किसी भी मनुष्यको कभी निराश नहीं होना चाहिये । सब-के-सब मनुष्य परमात्मतत्त्वको,मुक्तिको, तत्त्वज्ञानको, कैवल्यको, भगवत्प्रेमको,भगवद्दर्शनको* प्राप्त कर सकते हैं ।
यहाँ ‘वज्रसूची’ नामक उपनिषद् दी जा रही है । मुक्तिक-उपनिषद्में जहाँ एक सौ आठ उपनिषदोंके नाम दिये गये हैं, वहाँ इस उपनिषद्का भी नाम आया है ।†
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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* भगवान्को अपना माननेका सबको अधिकार है । अनन्यभावसे भगवान्को अपना माननेसे भगवान्में प्रेम हो जाता है ।
† ईशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरिः ।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा ॥
ब्रह्मकैवल्यजाबालश्वेताश्वो हंस आरुणिः ।
गर्भो नारायणो हंसो बिन्दुर्नादशिरः शिखा ॥
मैत्रायणी कौषीतकी बृहज्जाबालतापनी ।
कालाग्रिरुद्रमैत्रेयी सुबालक्षुरिमन्त्रिका ॥
सर्वसारं निरालम्बं रहस्यं वज्रसूचिकम् ।
तेजोनादध्यानविद्यायोगतत्त्वात्मबोधकम् ॥
परिव्राट् त्रिशिखी सीता चूडा निर्वाणमण्डलम् ।
दक्षिणा शरभं स्कन्दं महानारायणाद्वयम् ॥
रहस्यं रामतपनं वासुदेवं च मुद्गलम् ।
शाण्डिल्यं पैङ्गलं भिक्षुमहच्छारीरकं शिखा ॥
तुरीयातीतसंन्यासपरिव्राजाक्षमालिका ।
अव्यक्तैकाक्षरं पूर्णा सूर्याक्ष्यध्यात्मकुण्डिका ॥
सावित्र्यात्मा पाशुपतं परं ब्रह्मावधूतकम् ॥
त्रिपुरातपनं देवी त्रिपुरा कठभावना ।
हृदयं कुण्डली भस्म रुद्राक्षगणदर्शनम् ॥
तारसारमहावाक्यपञ्चब्रह्माग्निहोत्रकम् ।
गोपालतपनं कृष्णं याज्ञवल्क्यं वराहकम् ॥
शाट्यायनी हयग्रीवं दत्तात्रेयं च गारुडम् ।
कलिजाबालिसौभाग्यरहस्यऋचमुक्तिका ॥
एवमष्टोत्तरशतं भावनात्रयनाशनम् ।
ज्ञानवैराग्यदं पुंसां वासनात्रयनाशनम् ॥
(मुक्तिकोपनिषद्)
‘१ ईश, २ केन, ३. कठ, ४. प्रश्न, ५. मुण्डक, ६. माण्डूक्य, ७. तैत्तिरीय,८. ऐतरेय, ९. छान्दोग्य, १०. बृहदारण्यक, ११ ब्रह्म, १२. कैवल्य, १३. जाबाल, १४. श्वेताश्वतर, १५. हंस, १६. आरुणिक, १७. गर्भ, १८. नारायण, १९. परमहंस, २०. अमृतबिन्दु, २१ अमृतनाद, २२ अथर्वशिरस्, २३. अथर्वशिखा, २४. मैत्रायणी, २५. कौषीतकिब्राह्मण,२६. बृहज्जाबाल, २७. नृसिंहतापनीय, २८. कालाग्निरुद्र, २९. मैत्रेयी,३०. सुबाल, ३१ क्षुरिका, ३२. मन्त्रिका, ३३. सर्वसार, ३४. निरालम्ब,३५. शुकरहस्य, ३६. वज्रसूचिका, ३७. तेजोबिन्दु, ३८. नादबिन्दु, ३९. ध्यानबिन्दु, ४० ब्रह्मविद्या, ४१. योगतत्त्व, ४२. आत्मप्रबोध, ४३. नारदपरिव्राजक, ४४. त्रिशिखिब्राह्मण, ४५. सीता, ४६. योगचूड़ामणि,४७. निर्वाण, ४८. मण्डलब्राह्मण, ४९. दक्षिणामूर्ति, ५०. शरभ, ५१ स्कन्द, ५२ त्रिपाद्विभूतिमहानारायण, ५३. अद्वयतारक, ५४. रामरहस्य,५५. रामतापनीय, ५६. वासुदेव, ५७. मुद्गल, ५८. शाण्डिल्य, ५९. पैंगल, ६० भिक्षुक, ६१ महत्, ६२. शारीरक, ६३ योगशिखा, ६४. तुरीयातीत, ६५. संन्यास, ६६. परमहंसपरिव्राजक, ६७. अक्षमाला, ६८. अव्यक्त, ६९. एकाक्षर, ७०. अन्नपूर्णा, ७१ सूर्य, ७२. अक्षि, ७३ अध्यात्म, ७४. कुण्डिका, ७५. सावित्री, ७६. आत्मा, ७७. पाशुपत, ७८. परब्रह्म, ७९. अवधूत, ८०. त्रिपुरातापनीय, ८१. देवी, ८२. त्रिपुरा,८३. कठरुद्र, ८४. भावना, ८५. रुद्रहृदय, ८६. योगकुण्डली, ८७. भस्मजाबाल, ८८. रुद्राक्षजाबाल, ८९. गणपति, ९० जाबालदर्शन, ११. तारसार, १२. महावाक्य, ९३. पहब्रह्म, ९४. प्राणाग्निहोत्र, ९५. गोपालतापनीय, ९६. कृष्ण, ९७. याज्ञवल्क्य, ९८. वराह, ९९. शाट्यायनीय, १००. हयग्रीव, १०१ दत्तात्रेय, १०२. गरुड़ १०३. कलिसंतरण, १०४. जाबालि, १०५. सौभाग्यलक्ष्मी, १०६. सरस्वतीरहस्य, १०७. बह्वृच, १०८. मुक्तिकोपनिषद्‒ये एक सौ आठ उपनिषदें मनुष्यके आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक‒तीनों तापोंका नाश करती हैं । इनके पाठ और स्वाध्यायसे ज्ञान और वैराग्यकी प्राप्ति होती है तथा लोकवासना, शास्त्रवासना एवं देहवासनारूप त्रिविध वासनाओंका नाश होता है ।’
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