(गत ब्लॉगसे आगेका)
भक्तका पहले दास्यभाव होता है, जिसमें वह भगवान्को मालिक और अपनेको उनका दास मानता है । इस भावमें संकोच, लज्जा होती है कि मैं तो दास हूँ, कहीं मेरेसे कोई गलती न हो जाय ! ऐसा होते-होते फिर सख्यभाव हो जाता है । सख्यभावमें भक्त भगवान्को अपना सखा मानता है, उसकी भगवान्से अभिन्नता हो जाती है । इस भावमें दास्यभावकी तरह कोई संकोच या भय नहीं रहता । भगवान् सखाओंके साथ खेलते हैं । खेलमें वे हार जाते हैं, पर कहते हैं कि मैं तो जीत गया ! तब सखा उनको खेलसे बाहर कर देते हैं और कहते हैं कि हम तुम्हें अपने साथ खेलायेंगे ही नहीं ! तुम्हारी गायें अधिक हो गयीं तो क्या तुम बड़े आदमी हो गये ?
खेलत में को काकौ गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबसहीं कत करत रिसैयाँ ॥
जाति-पाँति हम ते बढ़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारैं गैयाँ ॥
रूठहि करै तासौं को खेलै, बैठि जहँ तहँ सब ग्वैयाँ ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ ॥
भगवान्के प्रभावका ज्ञान होते हुए भी गोपिकाएँ भगवान्को सखा मानती हैं और कहती हैं‒
न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥
(श्रीमद्भा॰ १० । ३१ । ४)
‘हे सखे ! आप केवल यशोदाके पुत्र ही नहीं हैं, प्रत्युत सम्पूर्ण प्राणियोंकी अन्तरात्माके साक्षी हैं । ब्रह्माजीकी प्रार्थना सुनकर विश्वकी रक्षाके लिये ही आप यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं ।’
आत्मसमर्पणमें भक्त अपने-आपको भगवान्के अर्पण कर देता है । उसके पास अपनी कहलानेवाली कोई चीज नहीं रहती, सब चीज भगवान्की हो जाती है । अपना शरीर,अपनी इन्द्रियाँ, अपना मन, अपनी बुद्धि, अपने प्राण, अपना अहम्‒सब भगवान्का ही हो जाता है, अपना नहीं रहता । इस प्रकार आत्मसमर्पणके बाद साध्यभक्ति अर्थात् प्रेमलक्षणा भक्ति प्राप्त हो जाती है । प्रेमलक्षणा भक्तिमें कौन भक्त है और कौन भगवान्, कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद‒इसका पता नहीं चलता अर्थात् भक्त और भगवान्में अभिन्नता हो जाती है‒‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’ (नारदभक्तिसूत्र ४१), ‘ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्’ (गीता ९ । २१)।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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