(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्के द्वारा अपनेको ऋणी कहनेका तात्पर्य है कि तुमलोगोंका मेरे प्रति जैसा प्रेम है, वैसा मेरा तुम्हारे प्रति नहीं है । कारण कि मेरेको छोड़कर तुम्हारा और किसीमें किंचिन्मात्र भी प्रेम नहीं है, पर मेरा अनेक भक्तोंमें प्रेम है ! अत: मैं तुम्हारे साथ बराबरी नहीं कर सकता । जैसे तुम मेरे सिवाय किसीको नहीं मानतीं, ऐसे ही मैं भी तुम्हारे सिवाय किसीको न मानूँ, तभी बराबरी हो सकती है ! परन्तु मेरे तो अनेक भक्त हैं, जिनको मैं मानता हूँ । इसलिये मैं तुम्हारा ऋणी हूँ !
यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई ॥
(विनयपत्रिका १६५ । ५)
जो दीन होते हैं, छोटे होते हैं, शरणागत होते हैं,केवल भगवान्के परायण होते हैं, उनका आदर भगवान्के यहाँ होता है । जो भगवान्से प्रेम करते-करते अघाते नहीं,भगवान् उनके वशीभूत हो जाते हैं और चाहे जो कर देते हैं । प्रेमके वशमें होकर वे सारथि बनकर घोड़े हाँकते हैं, जूठी पत्तलें उठाते हैं और उसमें राजी होते हैं । जैसे माँको बालकका मल-मूत्र उठानेमें भी आनन्द आता है, ऐसे ही भगवान्को भक्तोंका छोटे-से-छोटा काम करनेमें भी आनन्द आता है । माँमें तो स्वार्थ और ममता होती है, पर भगवान्में न स्वार्थ है, न ममता है, प्रत्युत केवल प्रेम है । जो छोटे आदमी होते हैं, वे तो बड़ा बनना चाहते हैं कि हम इतने बड़े हो जायँ । परन्तु भगवान् सबसे बड़े ठहरे, अत: उनको छोटा बननेमें आनन्द आता है‒
मैं तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणि ।
इसलिये भगवान् भक्तोंकी महिमा गाते हुए तृप्त नहीं होते । यह भक्तिकी महिमा है ! वह भक्ति दो प्रकारकी होती है‒साधनभक्ति और साध्यभक्ति । साधनभक्तिसे साध्यभक्ति प्राप्त होती है‒‘भक्त्या संजातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा॰ ११ । ३ । ३१) । साधनभक्तिके नौ प्रकार हैं‒
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(श्रीमद्भा॰ ७ । ५ । २३)
‘श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन,दास्य, सख्य और आत्मसमर्पण‒यह नवधा भक्ति है ।’ इसके तीन-तीन प्रकारके भेद हैं । श्रवण, कीर्तन और स्मरण‒इन तीनोंमें भक्त अपनेको भगवान्से दूर समझता है । पादसेवन,अर्चन और वन्दन‒इन तीनोंमें भक्त भगवान्को नजदीक समझता है । दास्य, सख्य और आत्मसमर्पण‒इन तीन भावोंमें भक्त भगवान्को बहुत नजदीक समझता है । इस प्रकार श्रवणसे लेकर आत्मसमर्पणतक भक्त क्रमश: अपनेको भगवान्के नजदीक मानता है । आत्मसमर्पणमें भक्त सर्वथा भगवान्में तल्लीन हो जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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