(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रेमी भक्त मुक्ति नहीं चाहते, क्योंकि बन्धन होनेसे ही मुक्तिकी इच्छा होती है । संसारमें राग होना ही बन्धन है ।प्रेमी भक्तोंमें सांसारिक रागरूप बन्धन रहता ही नहीं । उसका तो बस, एक ही बन्धन रहता है‒
अब तो बन्ध मोक्षकी इच्छा व्याकुल कभी न करती है ।
मुखड़ा ही नित नव बन्धन है, मुक्ति चरणसे झरती है ॥
भगवान्का मुख ही भक्तोंके लिये बन्धन है, जो नित्य नया-नया होता रहता है !
दिने दिने नवं नवं नमामि नन्दसम्भवम् ।
(कृष्णाष्टक ५)
‘आज अनूप बनी, युगल छवि आज अनूप बनी ।’
इसलिये भक्तिका रस प्रतिक्षण स्वाभाविक बढ़ता रहता है । ज्ञानका आनन्द तो अखण्ड शान्त, एकरस रहता है,पर भक्तिका आनन्द अनन्त होता है । चन्द्रमाकी कलाएँ बढ़ती हैं तो उसकी पूर्णिमा आ जाती है, पर भगवत्पेमरूपी चन्द्रमें कभी पूर्णिमा आती ही नहीं‒
प्रेम सदा बढ़िबौ करै, ज्यों ससिकला सुबेष ।
पै पूनौ यामें नहीं, तातें कबहुँ न सेष ॥
(पद-रत्नाकर ६४६)
भगवान्की अनन्त शक्तियोंमें दो विशेष शक्तियाँ हैं‒ऐश्वर्य और माधुर्य । ऐश्वर्यमें प्रभाव है और माधुर्यमें प्रेम है ।उस माधुर्यमें भगवान् अपना ऐश्वर्य, अपना प्रभाव, अपनी भगवत्ता भूल जाते हैं । भक्तोंका प्रेम भगवान्को भोला बना देता है । माता यशोदा भगवान् श्रीकृष्णको पकड़ लेती हैं तो वे डरके मारे रोने लग जाते हैं कि मैया मारेगी ! भय भी जिससे भयभीत होता है वे भगवान् माँसे भयभीत हो जाते हैं‒यह भगवान्का माधुर्य है !
जहाँ प्रेम होता है, वहाँ भगवान् वशमें हो जाते हैं । भक्त भगवान्से प्रेम करते हैं तो भगवान् सोचते हैं कि मैं इनको क्या दूँ ? गोपिकाएँ भगवान्से प्रेम करती हैं तो भगवान् कहते हैं‒
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व: ।
या माभजन् दुर्जरगेहश्रृङ्खला:
संवृश्च्य तद् व: प्रतियातु साधुना ॥
(श्रीमद्भा॰ १० । ३२ । २२)
‘मेरे साथ सर्वथा निर्दोष सम्बन्ध जोड़नेवाली तुम गोपिकाओंका मेरेपर जो ऋण है, उसको मैं देवताओंके समान लम्बी आयु पाकर भी नहीं चुका सकता । कारण कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी घरकी जिस ममतारूपी बेड़ियोंको सुगमतासे नहीं तोड़ पाते, उनको तुमलोगोंने तोड़ डाला है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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