(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे गंगाजीमें माघका स्नान भी किया जाता है और वैशाखका भी । दोनोंका माहात्म्य समान है । माघके स्नानमें ठण्डके कारण बड़ा कष्ट होता है । हवा भी ठण्डी और गंगाजीका जल भी ठण्डा ! जब स्नान करते हैं, तब शरीर काँपने लगता है, शरीरमें जगह-जगह खून जम जाता है,हाथोंसे कपड़े नहीं उठाये जाते । परन्तु वैशाखके स्नानमें बड़ी प्रसन्नता होती है । गरमीके समय गंगाजीके ठण्डे जलमें स्नान किया जाय तो बड़ा आनन्द आता है । ऐसे ही वैर, भय, द्वेष आदिसे भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ना माघका स्नान है और प्रेमपूर्वक सम्बन्ध जोड़ना वैशाखका स्नान है । प्रेममें भगवान् बड़े अच्छे, बड़े प्यारे, बड़े मीठे लगते हैं । उनके गुण, महिमा,नाम आदि सुनकर चित्त मस्त हो जाता है ।
जैसे ज्ञानीकी अपने स्वरूपमें प्रीति (आत्मरति) होती है, ऐसे ही भक्तकी भगवान्में प्रीति होती है‒‘तुष्यन्ति च रमन्ति च’ (गीता १० । १) । भगवत्प्रीति होनेसे वह रात-दिन भगवान्के ही गुण गाता है, भगवान्की ही चर्चा करता है, भगवान्का ही यश सुनता है । उसको भगवान्का ध्यान करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उसके द्वारा स्वत: भगवान्का ध्यान होता है । जैसे भूखेको अन्न स्वत: याद आता है, याद करना नहीं पड़ता, ऐसे ही उसको स्वत: भगवान्की याद आती है । इन्द्रके साथ युद्ध करते समय वृत्रासुर कहता है‒
अजातपक्षा इव मातरं खगाः
स्तन्यं यथा वत्सतराः शुधार्ता: ।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥
(श्रीमद्भा॰ ६ । ११ । २६)
‘जैसे पक्षियोंके पंखहीन बच्चे अपनी माँकी प्रतीक्षा करते हैं । जैसे केवल दूधपर निर्भर रहनेवाले भूखे बछड़े अपनी माँका दूध पीनेके लिये आतुर रहते हैं और जैसे विरहिणी पतिव्रता स्त्री अपने पतिसे मिलनेके लिये उत्कण्ठित रहती है, वैसे ही हे कमलनयन ! मेरा मन भी आपके दर्शनके लिये छटपटा रहा है ।’
माता पार्वतीके शापसे वृत्रासुर ऊपरसे तो असुर बन गया था, पर भीतरसे वह भगवान्का प्रेमी भक्त था । इसलिये वह कहता है‒
न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
समञ्जस त्वा विरहस्य काङ्क्षे ॥
(श्रीमद्भा॰ ६ । ११ । २५)
‘सर्वसौभाग्यनिधे ! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग,ब्रह्मलोक, भूमण्डलका साम्राज्य, रसातलका एकछत्र राज्य,योगकी सिद्धियाँ, यहाँतक कि मोक्ष भी नहीं चाहता ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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