(गत ब्लॉगसे आगेका)
पार्वतीजीने भी कहा है‒
जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू ।
आपु कहहिं सत् बार महेसू ॥
(मानस, बाल॰ ८१ । ३)
इस तरह प्रेममें भक्तका मन केवल भगवान्की तरफ ही चलता है । प्रेमको मोक्षसे भी बढ़कर माना गया है । अर्थ,धर्म, काम और मोक्ष‒ये चार पुरुषार्थ कहे गये हैं । प्रेम इन चारोंसे भी आगे पंचम पुरुषार्थ है । मोक्षमें मनुष्य अपना सुख चाहता है, पर प्रेममें वह भगवान्का सुख चाहता है । प्रेमी भक्तोंका ऐसा भाव रहता है कि हमें नरकोंमें भी जाना पड़े तो कोई हर्ज नहीं, पर भगवान्को सुख मिलना चाहिये,आराम मिलना चाहिये । गोपिकाएँ वृन्दावनमें रहती थीं और भगवान् श्रीकृष्ण मथुरामें रहते थे । परन्तु गोपिकाएँ मथुरा नहीं गयीं, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि वे मथुरा आयें । ऐसा होनेपर भी गोपिकाओंका मन निरन्तर भगवान्में ही लगा रहा । बृहस्पतिके खास शिष्य उद्धवजी-जैसे ज्ञानी पुरुष भी उनके मनको विचलित नहीं कर सके,प्रत्युत उनके प्रेमभावको देखकर स्वयं ज्ञानसे विचलित हो गये ! गोपिकाओंकी तरह हमारा मन भी भगवान्का ही चिन्तन करे, हमारी वाणी भगवान्का ही गुणगान करे, हमारे कान भगवान्की ही चर्चा सुनें । हमारी सभी वृत्तियों स्वाभाविक ही भगवान्में लगी रहें‒
वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां
हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्न: ।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे
दृष्टि: सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥
(श्रीमद्भा॰ १० । १० । ३८)
‘प्रभो ! मेरी वाणी आपके गुणोंके वर्णनमें लगी रहे । मेरे कान आपकी कथा सुननेमें लगे रहें । मेरे हाथ आपकी सेवामें और मन आपके चरणोंमें लगा रहे । मेरा मस्तक आपके निवासभूत जगत्को प्रणाम करनेके लिये झुका रहे और मेरी आँखें आपके स्वरूपभूत सन्तजनोंका दर्शन करती रहें ।’
हमने संसारको सत्ता दी और सत्ता देकर महत्ता दे दी,इसी कारण हमारी वृत्तियों संसारमें लग गयीं । हमारी वृत्तियोंका प्रवाह संसारसे हटकर भगवान्में हो जाय‒इसका नाम भक्ति है । जैसे बालकको माँ बड़ी प्यारी लगती है,उसका नाम बड़ा मीठा लगता है, उसकी सन्निधि बड़ी प्यारी लगती है, ऐसे ही भगवान्, उनका नाम और उनका सान्निध्य प्यारा, मीठा लगने लगे‒यह भक्तिका आरम्भ है । जैसे बिना इच्छाके भी कोई अग्निको छू ले तो हाथ जल जाता है, ऐसे ही किसी भी रीतिसे मन भगवान्में लग जाय तो वह कल्याण कर देता है । यद्यपि भगवान्के साथ वैर, भय, द्वेष आदि भावसे भी सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वह कल्याण ही करता है,तथापि वह भक्ति नहीं है । भक्ति वही है, जिसमें भगवान्के साथ प्रेमपूर्वक सम्बन्ध जोडा जाय ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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