।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
माघीपूर्णिमा, माघस्नान समाप्त
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीतामें भगवान्‌ने जन्म-मरणकी बात तो कई जगह कही हैपर ‘जरा-मरण’ की बात इन्हीं श्लोकोंमें कही है । तात्पर्य है कि जो भगवान्‌की भक्ति करता हैवह जरा और मरण दोनोंसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसको शरीरके रहते हुए वृद्धावस्थाका भी दुःख नहीं होता और गतिके विषयमें भी दुःख नहीं होता कि मरनेके बाद मेरी क्या गति होगी वे भगवान्‌का आश्रय लेकर यत्न करते हैंइसलिये वे भगवान्‌के समग्ररूपको जान जाते हैं अर्थात् विज्ञानसहित ज्ञानको जान जाते हैं । ब्रह्म (निर्गुण-निराकार)अध्यात्म (अनन्त जीव) तथा कर्म (सृष्टि-रचनारूप कर्म)*यह ‘ज्ञान’ (निर्गुण) का विभाग है और अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड)अधिदैव (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा) तथा अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु)‒यह‘विज्ञान’ (सगुण) का विभाग है‒इन दोनों विभागोंको वे शरणागत भक्त जान जाते हैं । कारण कि समग्रका ज्ञान विचारसे नहीं होताप्रत्युत शरणागत होनेपर भगवत्कृपासे होता है । यहाँ एक बात विशेष ध्यान देनेकी है कि निर्गुण-निराकार ब्रह्मका नाम भगवान्‌के समग्ररूपके अन्तर्गत आया है । लोगोंमें प्राय: इस बातकी प्रसिद्धि है कि निर्गुण-निराकार ब्रह्मके अन्तर्गत ही सगुण ईश्वर है । ब्रह्म मायारहित है और ईश्वर मायासहित है । अत: ब्रह्मके एक अंशमें ईश्वर है । परन्तु गीतामें भगवान् कह रहे हैं कि मेरे समग्ररूपके एक अंशमें ब्रह्म है ! इसलिये भगवान्‌ने अपनेको ब्रह्मका आधार बताया है‒‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ (गीता १४ । २७) ‘मैं ब्रह्मकी प्रतिष्ठा (आश्रय) हूँ’ तथा ‘मया ततमिद सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता १ । ४) ‘यह सब संसार मेरे अव्यक्त स्वरूपसे व्याप्त है ।’ भगवान्‌के इस कथनका तात्पर्य है कि ब्रह्मका अंश मैं नहीं हूँप्रत्युत मेरा अंश ब्रह्म है । अत: निष्पक्ष विचार करनेसे ऐसा दीखता है कि गीतामें केवल ब्रह्मकी मुख्यता नहीं हैप्रत्युत समग्र भगवान्‌की मुख्यता है । पूर्ण तत्त्व समग्र ही है । समग्रमें सगुण-निर्गुणसाकार-निराकार सब आ जाते हैं । वास्तवमें देखा जाय तो समग्ररूप सगुणका ही हो सकता हैक्योंकि सगुणके अन्तर्गत तो निर्गुण आ सकता हैपर निर्गुणके अन्तर्गत सगुण नहीं आ सकता । अत: समग्रता सगुणमें ही हैनिर्गुणमें नहीं ।

निर्गुण-निराकारको माननेवाले जीव और ब्रह्मको स्वरूपसे एक ही मानते हैं । गीतामें भी जीव और ब्रह्मके समान लक्षणोंका वर्णन हुआ है । भगवान्‌ने देही (देहवाले जीव) के जो लक्षण कहे हैंवही लक्षण देहरहित ब्रह्मके भी कहे हैं । तात्पर्य यह हुआ कि देहसहित होनेसे जो जीव है,वही देहरहित होनेसे ब्रह्म है अर्थात् जीव केवल शरीरकी उपाधिसे अलग हैअन्यथा वह ब्रह्म ही है । इसलिये निर्गुणोपासनामें जो देहसहित हैवह उपासक है और जो देहरहित हैवह ‘उपास्य’ है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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          * भगवान्‌का यह सृष्टि-रचनारूप कर्म वास्तवमें ‘अकर्म’ ही है । भगवान्‌ने कहा भी है‒‘तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्’ (गीता ४ । १३) ‘उस सृष्टिरचनाका कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय परमेश्वरको तू अकर्ता जान ।’ इसीलिये इस कर्मको भगवान्‌ने ‘त्याग’ कहा है‒‘विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित: (८ । ३) ।

    ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
      अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिम: ॥
                                          (ब्रह्मज्ञानावलीमाला २०)

     उदाहरणार्थ‒गीतामें भगवान्‌ने दूसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें‘अव्यय’बीसवें श्लोकमें ‘पुराण’चौबीसवें श्लोकमें ‘सर्वगत’‘अचल’ और‘सनातन’ तथा पचीसवें श्लोकमें ‘अव्यक्त’ और ‘अचिन्त्य’ आदि लक्षण जीवात्माके बताये हैं । यही लक्षण परमात्माके लिये भी बताये हैं,जैसे‒‘अव्यय’ (१८ । २०)‘पुराण’ (८ । १)‘सर्वगत’ (३ । १५)‘अचल’(१२ । ३)‘सनातन’ (४ । ३१)‘अव्यक्त’ (१२ । ५) और ‘अचिन्त्य’ ८ । ९१२ । ३) आदि । भगवान्‌ने जैसे‒‘येन सर्वमिदं ततम्’ (२ । १७)कहकर जीवात्माको सर्वव्यापक बताया है, ऐसे ही ‘येन सर्वमिदं ततम्’(८ । २२; १८ । ४६) कहकर परमात्माको भी सर्वव्यापक बताया है ।