(गत ब्लॉगसे आगेका)
देहके साथ माना हुआ सम्बन्ध ही जीव और ब्रह्मकी एकतामें खास बाधक है । इसलिये देहाभिमानीके लिये निर्गुणोपासनाकी सिद्धि कठिनतासे तथा देरीसे होती है‒‘अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते’ (गीता १२ । ५)। परन्तु सगुणोपासनामें देहका सम्बन्ध बाधक नहीं है, प्रत्युत भगवान्की विमुखता बाधक है । अत: भक्त आरम्भसे ही ‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं’‒ऐसा मानकर भगवान्के सम्मुख हो जाता है । इसलिये सगुणोपासकका भगवान्की कृपासे शीघ्र ही तथा सुगमतासे उद्धार हो जाता है* । कारण कि भक्त साधनके आश्रित न होकर भगवान्के आश्रित होता है । यह सगुणोपासनाकी विलक्षणता है ! सगुणोपासनाकी दूसरी विलक्षणता यह है कि इसमें भक्त जगत्को मिथ्या मानकर उसका त्याग करनेपर जोर नहीं देता, क्योंकि उसकी मान्यतामें जड़-चेतन, स्थावर-जंगम, सत्-असत् सब कुछ भगवान् ही हैं‒‘अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता १ । ११) । इसलिये सगुणकी उपासना समग्रकी उपासना है । गीताने सगुणको समग्र माना है और ब्रह्म, जीव, कर्म, जगत्,हिरण्यगर्भ ब्रह्मा तथा अन्तर्यामी विष्णु‒इन सबको समग्र भगवान्के ही अंग माना है (७ । २९-३०) । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि निर्गुणोपासना (ब्रह्मकी उपासना) समग्र भगवान्के एक अंगकी उपासना है और सगुणोपासना स्वयं समग्र भगवान्की उपासना है† !
निर्गुण-निराकार ब्रह्म और नाशवान् जगत्‒दोनों ही समग्र भगवान्के ऐश्वर्य हैं‡ । भक्त ऐश्वर्यसे प्रेम नहीं करता,प्रत्युत ऐश्वर्यवालेसे प्रेम करता है । इसलिये भगवान्ने समग्रकी उपासना करनेवालेको सर्वश्रेष्ठ बताया है (गीता ६ । ४७, १२ । २) और ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’‒इसका अर्थात् समग्रका अनुभव करनेवाले महात्माको अत्यन्त दुर्लभ कहा है‒‘वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ’ (गीता ७ । ११) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ (गीता १२ । ७)
‘हे पार्थ ! मेरेमें आविष्ट चित्तवाले उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसार-समुद्रसे शीघ्र ही उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ ।’
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: ।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ (गीता ८ । १४)
‘हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ ।’
† जो समग्र भगवान्के एक अंगकी उपासना करता है उसको भी अन्तमें समग्रकी प्राप्ति हो जाती है (गीता १२ । ३-४; १८ । ५३‒५५) । अत: जिसको निर्गुण अच्छा लगता हो, वह निर्गुणकी उपासना करे, पर उसको निर्गुणका आग्रह रखकर सगुणका तिरस्कार नहीं करना चाहिये । सगुणका तिरस्कार, निन्दा, खण्डन करना निर्गुणोपासकके लिये बहुत घातक है ।
‡ विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
(गीता १० । ४२)
‘मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत्को व्यास करके स्थित हूँ ।’
इहैकस्थं जगकृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि ॥ (गीता ११ । ७)
‘हे गुडाकेश ! मेरे इस शरीरके एक देशमें चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्को अभी देख ले । इसके सिवाय तू और भी जो कुछ देखना चाहता है, वह भी देख ले ।’
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