(गत ब्लॉगसे आगेका)
यदि गहराईसे विचार किया जाय तो सगुणकी मुख्यता ही ठीक जँचती है । केवल निर्गुणकी मुख्यता माननेसे सभी बातोंका ठीक समाधान नहीं होता, जबकि केवल सगुणकी मुख्यता माननेसे कोई सन्देह बाकी नहीं रहता । आजकल सगुणको मायायुक्त मानकर उसका तिरस्कार किया जाता है‒यह उचित नहीं है । सगुण मायायुक्त नहीं है प्रत्युत मायाका अधिपति (मालिक) है* । सनकादिक, शुकदेव, जनक आदि तत्त्वज्ञ महापुरुषोंका सगुणमें स्वाभाविक प्रेम था, जो समय-समयपर प्रकट होता रहता था । श्रीमद्भागवतमें आया है‒
आत्मारामाश्र मुनयो निर्ग्रन्धा अप्यूरुक्रमे ।
कुर्वज्यहैतुकीं भक्ति मित्थष्णुतगुणो हरि: ॥
(१ । ७ । १०)
‘ज्ञानके द्वारा जिनकी चिज्जडग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान्की हेतुरहित (निष्काम) भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान्के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी ओर खींच लेते हैं ।’
२. परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियोंके मूल हैं
जिससे सृष्टिमात्रका संचालन होता है उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय होता है, ऐसी एक शक्ति परमात्मामें माननी ही पड़ेगी । यदि परमात्मामें कोई शक्ति स्वीकार न करें तो सृष्टि-रचना आदि कार्य सिद्ध नहीं होंगे ! गीताप्रेसके संस्थापक संचालक तथा संरक्षक श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने, जो निर्गुणको मुख्य मानते थे, एक बार मेरेसे एकान्तमें कहा था कि परमात्मामें एक शक्ति माननी ही पड़ेगी, माने बिना काम नहीं चलता ।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि सबका निषेध होनेपर एक शून्य ही शेष रहता है, अत: शून्यके सिवाय कुछ नहीं है ।अगर शून्यके सिवाय कुछ नहीं है‒यह बात सच्ची है तो फिर इस बातका ज्ञान किसको हुआ ? शून्यका ज्ञाता शून्य नहीं हो सकता । दूसरी बात, अगर शून्यके सिवाय कुछ नहीं है तो फिर यह सृष्टि कैसे पैदा हुई ? अभावसे भाव कैसे पैदा हो सकता है ?‒‘कथमसतः सज्जायेतेति’ (छान्दोग्य॰ ६ । २ । २)इसलिये ब्रह्मसूत्रके आरम्भमें ही आया है‒‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा । जन्माद्यस्य यत: ।’ (१ । १ । १-२)
‘अब यहाँसे ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ किया जाता है । इस जगत्के जन्म आदि (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय) जिससे होते हैं, वह ब्रह्म है ।’
सर्वोपेता च तद्दर्शनात् । (२ । १ । ३०)
‘वह ब्रह्म समस्त शक्तियोंसे सम्पन्न है, क्योंकि श्रुतियोंमें ऐसा ही देखा जाता है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ (गीता ४ । ६)
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ॥ (गीता ९ । १०)
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
(मानस, बाल॰ ११७ । ४)
माया बस्य जीव अभिमानी । ईस बस्य माया गुनखानी ॥
परबस जीव स्वबस भगवंता । जीव अनेक एक श्रीकंता ॥
(मानस, उत्तर॰ ७८ । ३-४)
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