(गत ब्लॉगसे आगेका)
तात्पर्य है कि परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियोंका,विद्याओंका, कलाओंका विलक्षण भण्डार है । शक्तियों जड़ प्रकृतिमें नहीं रह सकतीं, प्रत्युत चिन्मय परमात्मतत्त्वमें ही रह सकती हैं । ज्ञानपूर्वक होनेवाली चीज जड़में कैसे रह सकती है ? अगर ऐसा मानें कि सब शक्तियाँ प्रकृतिमें ही हैं,तो भी यह मानना पड़ेगा कि उन शक्तियोंका उपयोग (सृष्टि-रचना आदि) करनेकी योग्यता प्रकृतिमें नहीं है । जैसे,कम्प्यूटर जड़ होते हुए भी अनेक विचित्र कार्य करता है, पर उसका निर्माण और संचालन करनेवाला चेतन (मनुष्य) है । मनुष्यके द्वारा निर्मित, शिक्षित तथा संचालित हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता । कम्प्यूटर स्वतःसिद्ध नहीं है प्रत्युत बनावटी (बनाया हुआ) है, जबकि परमात्मा स्वतःसिद्ध हैं । संसारमें तरह-तरहके आविष्कार होते हैं, पर आविष्कार करनेवाला चेतन ही होता है । अत: संसारमें जो भी विशेषता, विलक्षणता देखी जाती है, वह सब परमात्मासे ही आती है‒
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥
(गीता १० । ४१)
‘जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त वस्तु है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज (योग) के अंशसे उत्पन्न हुई समझो ।’
यदि परमात्मामें शक्ति न होती तो वह संसारमें कैसे आती ? जो शक्ति बीजमें होती है, वही वृक्षमें आती है । जो शक्ति बीजमें नहीं है, वह वृक्षमें कैसे आयेगी ? उसी परमात्माकी वकृत्व-शक्ति वक्तामें आती है, उसीकी लेखन-शक्ति लेखकमें आती है, उसीकी दातृत्व-शक्ति दातामें आती है, उसीकी कवित्व-शक्ति कविमें आती है । मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि सब उस परमात्माका ही दिया हुआ है । यह प्रकृतिका कार्य नहीं है । अगर ‘मैं मुक्तस्वरूप हूँ’‒यह बात सच्ची है तो फिर बन्धन कहाँसे आया ? अगर ‘मैं ज्ञानस्वरूप हूँ’‒यह बात सच्ची है तो फिर अज्ञान कहाँसे आया ? कैसे आया ? क्यों आया ? कब आया ? सूर्यमें अमावसकी रात कैसे आ सकती है? वास्तवमें ज्ञान है तो परमात्माका, पर मान लिया अपना,तभी अज्ञान आया है* । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ; ज्ञान मेरा है‒यह ‘मैं’ और ‘मेरा’ (अहंता-ममता) ही अज्ञान है । जिससे मुक्ति,ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं, उसकी तरफ दृष्टि न रहनेसे ही ऐसा दीखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञान मेरा है, प्रेम मेरा है । यह तो देनेवाले (परमात्मा) की विलक्षणता है कि लेनेवालेको वह चीज अपनी ही मालूम देती है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* ज्ञान अथवा जाननेकी शक्ति प्रकृतिमें नहीं है । प्रकृति एकरस रहनेवाली नहीं है, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलनेवाली है । अगर प्रकृतिमें ज्ञान होगा तो वह ज्ञान भी एकरस न रहकर बदलनेवाला हो जायगा । जो ज्ञान पैदा होगा, वह सदाके लिये नहीं होगा, प्रत्युत अनित्य होगा । अगर कोई माने कि ज्ञान प्रकृतिमें ही है तो उसी प्रकृतिको हम परमात्मा कहते हैं, केवल शब्दोंमें फर्क है ! तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञान प्रकृतिमें नहीं है,अगर है तो वही परमात्मा है ।
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