(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनुष्यसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुको तो अपनी मान लेता है, पर जहाँसे वह मिली है उस तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं ! वह मिली हुई वस्तुको तो देखता है, पर देनेवालाको देखता ही नहीं ! कार्यको तो देखता है, पर जिसकी शक्तिसे कार्य हुआ, उस कारणको देखता ही नहीं ! वास्तवमें वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत देनेवाला अपना है । प्रह्लादजी कहते हैं‒
शास्ता विष्णुरशेषस्य जगतो यो हृदि स्थित: ।
तमृते परमात्मानं तात कः केन शास्यते ॥
(विष्णुपुराण १ । १७ । २०)
‘हृदयमें स्थित भगवान् विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत्के उपदेशक हैं । हे तात ! उन परमात्माको छोड़कर और कौन किसको कुछ सिखा सकता है ? नहीं सिखा सकता ।’
ध्रुवजी कहते हैं‒
योऽन्त: प्रविश्य मम वाचमिमां प्रस्तां
संजीवयत्यखिलशक्तिधर: स्वधाम्ना ।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥
(श्रीमद्भा॰ ४ । ९ । ६)
‘प्रभो ! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं । आप ही मेरे अन्तःकरणमें प्रवेश करके अपने तेजसे मेरी इस सोयी हुई वाणीको सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान, त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणोंको भी चेतनता देते हैं । मैं आप अन्तर्यामी भगवान्को प्रणाम करता हूँ ।’
केनोपनिषद्में आता है‒
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति । (३ । १)
‘परब्रह्म परमेश्वरने ही देवताओंके लिये (उनको निमित्त बनाकर) असुरोंपर विजय प्राप्त की । परन्तु उस परब्रह्म परमेश्वरकी विजयमें इन्द्रादि देवताओंने अपनेमें महत्त्वका अभिमान कर लिया । वे ऐसा समझने लगे कि यह हमारी ही विजय है और यह हमारी ही महिमा है ।’
देवताओंके इस अभिमानको नष्ट करनेके लिये परब्रह्म परमात्मा उनके सामने यक्षरूपसे प्रकट हो गये । उसको देखकर देवतालोग आश्रर्यचकित होकर विचार करने लगे कि यह यक्ष कौन है ? उसका परिचय जाननेके लिये देवताओंने अग्निदेवको उसके पास भेजा । यक्षके पूछनेपर अग्निदेवने कहा कि मैं जातवेदाके नामसे प्रसिद्ध अग्निदेवता हूँ और मैं चाहूँ तो पृथ्वीमें जो कुछ है, उस सबको जलाकर भस्म कर सकता हूँ । तब यक्षने उसके सामने एक तिनका रख दिया और कहा कि तुम इस तिनकेको जला दो । अग्निदेव अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनकेको नहीं जला सका और लज्जित होकर देवताओंके पास लौट आया एवं बोला कि वह यक्ष कौन है‒यह मैं नहीं जान सका । तब देवताओंने वायुदेवको यक्षके पास भेजा । यक्षके पूछनेपर वायुदेवने कहा कि मैं मातरिश्वाके नामसे प्रसिद्ध वायुदेवता हूँ और मैं चाहूँ तो पृथ्वीमें जो कुछ है, उस सबको उड़ा सकता हूँ । तब यक्षने उसके सामने भी एक तिनका रख दिया और कहा कि तुम इस तिनकेको उड़ा दो । वायुदेव अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनकेको नहीं उड़ा सका और लज्जित होकर लौट आया एवं देवताओंसे बोला कि वह यक्ष कौन है‒यह मैं नहीं जान सका ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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