(गत ब्लॉगसे आगेका)
निर्गुण-निराकारके अनन्य उपासक मधुसूदनाचार्य-जीको भी कहना पड़ा‒
अद्वैतवीथीपथिकैरुपास्याः स्वाराज्यसिंहासनलब्धदीक्षाः ।
शठेन केनापि वयं हठेन दासीकृता गोपवधूविटेन ॥
‘अद्वैतमार्गके अनुयायियोंद्वारा पूज्य तथा स्वाराज्यरूपी सिंहासनपर प्रतिष्ठित होनेका अधिकार प्राप्त किये हुए हमें गोपियोंके पीछे-पीछे फिरनेवाले किसी धूर्तने हठपूर्वक अपने चरणोंका गुलाम बना लिया !’
इसलिये उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि भगवान् श्रीकृष्ण (सगुण-साकार) से परे कोई भी तत्त्व नहीं है‒
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणविम्बफलाधरोष्ठात् ।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात् परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ॥
उद्धवजी निर्गुण-निराकार ब्रह्मको सबसे ऊँचा मानते थे, पर गोपियोंकी सगुण-भक्ति (श्रीकृष्णके प्रति प्रेम) के सामने उनका अभिमान गल गया ! पद्मपुराणमें आया है कि भगवान् श्रीकृष्णके ही नखकी एक किरण ‘ब्रह्म’ है‒
यन्नखेन्दुरुचिर्ब्रह्म ध्येयं ब्रह्मादिभिः सुरै: ।
गुणत्रयमतीतं तं वन्दे वृन्दावनेश्वरम् ॥
(पाताल॰ ७७ । ६०)
‘(भगवान् शंकर कहते हैं‒) जिनके नखचन्द्रकी कान्तिरूप ब्रह्मका देवतागण ध्यान करते हैं, उन त्रिगुणातीत वृन्दावनेश्वर भगवान् श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ ।’
हनुमन्नाटकमें एक श्लोक आया है‒
यं शैवा समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिका: ॥
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
सोऽयं नो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरि: ॥
(१ । ३)
‘शैव शिवरूपसे, वेदान्ती ब्रह्मरूपसे, बौद्ध बुद्धरूपसे प्रमाणकुशल नैयायिक कर्तारूपसे, जैन अर्हन्रूपसे और मीमांसक कर्मरूपसे जिनकी उपासना करते हैं, वे त्रैलोक्याधिपति श्रीहरि हमें वाच्छित फल प्रदान करें ।’
‒इस श्लोकमें भी ब्रह्मको सगुण (श्रीहरि) का ही एक रूप बताया गया है । अत: भगवान्का सगुण रूप सर्वोपरि है ।
‘सगुण’ का अर्थ सत्त्व-रज-तम गुणोंसे युक्त नहीं है,प्रत्युत जिसमें ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य आदि दिव्य गुण नित्य विद्यमान रहते हैं, उसका नाम ‘सगुण’ है । श्रीरामानुजाचार्यजी महाराज अपने गीताभाष्यमें लिखते हैं ‒
‘स्वाभाविकानवधिकातिशयज्ञानबलैश्वर्यवीर्यशक्तितेज:
भृत्यसंख्येयकल्याणगुणगणमहोदधिः’
‘जो स्वाभाविक असीम अतिशय ज्ञान, बल, ऐश्वर्य,वीर्य, शक्ति और तेज प्रभृति असंख्य कल्याणमय गुण- समूहोंके महान् समुद्र हैं ।’
‘अपारकारुण्यसौशील्यवात्सल्यौदार्यमहोदधिः’
‘जो अपार कारुण्य, सौशील्य, वात्सल्य और औदार्यके महान् समुद्र हैं ।’ ये गुण चेतनके ही हो सकते हैं, माया (जड़) के नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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