।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
एकादशी-व्रत कल है
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
        माया तु प्रकृतिं विद्यान्मायिन तु महेश्वरम् ।
                                                                  (श्वेताश्वतर ४ । १०)
‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति महेश्वरको समझना चाहिये ।’

                 यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् ।
                 तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ॥
                                                         (मुण्डक ३ । १ । ३)
‘जब यह द्रष्टा (जीवात्मा) सबके शासकब्रह्माके भी आदि कारणसम्पूर्ण जगत्‌के रचयितादिव्य प्रकाशस्वरूप परमपुरुषको प्रत्यक्ष कर लेता हैतब पुण्य-पाप दोनोंको भलीभाँति हटाकर निर्मल हुआ वह ज्ञानी महापुरुष सर्वोत्तम समताको प्राप्त कर लेता है ।’

मनोमय: प्राणशरीरो भारूपः सत्यसंकल्प आकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकाम: सर्वगन्ध: सर्वरसः सर्वमिदमभ्यात्तोऽवाक्यनादरः । (छान्दोग्य ३ । १४ । २)

 ‘वह ब्रह्म मनोमयप्राणशरीरप्रकाशस्वरूपसत्य- संकल्पआकाशस्वरूपसर्वकर्मासर्वकामसर्वगन्ध, सर्वरसइस समस्त जगत्‌को सब ओरसे व्याप्त करनेवाला,वाक्-रहित और सम्भ्रमशून्य है ।’

                       ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्
                           देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगढाम् ।
                       यः कारणानि निखिलानि तानि
                           कलात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥
                       (श्वेताश्वतर १ । ३)

 ‘उन महर्षियोंने ध्यानयोगमें स्थित होकर अपने गुणोंसे ढकी हुई उन परमात्मदेवकी स्वरूपभूत शक्तिका साक्षात्कार कियाजो परमात्मदेव अकेला ही उन कालसे लेकर आत्मातक सम्पूर्ण कारणोंपर शासन करता है ।’
          
            सगुण या निर्गुणसभी उपासनाएँ सगुण-निराकारसे ही आरम्भ होती हैं । परमात्मा हैं‒यह मान्यता भी सगुण-निराकारको लेकर ही हैक्योंकि प्रकृतिका कार्य होनेसे बुद्धि प्रकृतिसे अतीत निर्गुण-तत्त्वको पकड़ नहीं सकती । इसलिये निर्गुणके उपासकका लक्ष्य तो निर्गुण-निराकारका होता हैपर बुद्धिसे वह सगुण-निराकारका ही चिन्तन करता है ।

५. ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग

भक्ति और ज्ञानमेंद्वैत और अद्वैतमें परस्पर किंचिन्मात्र भी विरोध नहीं है । भक्तिमें ज्ञान बाधक नहीं है, प्रत्युत भक्तिका आग्रह बाधक है और ज्ञानमें भक्ति बाधक नहीं हैप्रत्युत ज्ञानका आग्रह बाधक है । पुस्तकीय ज्ञान अथवा वाचिक (बातूनी) ज्ञान होनेसे ही उसमें भक्ति (द्वैतभावना) बाधक दीखती है । पुस्तकीय या वाचिक ज्ञानके विषयमें गोस्वामीजी महाराज लिखते हैं‒
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात ।
कौड़ी लागि लोभ बस    करहिं  बिप्र गुर घात ॥
                                                                  (मानसउत्तर ९९ क)

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे