(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानका अनुभव होनेपर उसमें भक्तिसे बाधा नहीं लगती । भगवान् शंकर, सनकादिक नारदजी, वेदव्यासजी,शुकदेवजी आदि पूर्ण ज्ञानी होते हुए भी भगवान्की लीला-कथाएँ गाते और सुनते हैं । वास्तवमें बाधक है‒संसारकी आसक्ति । अत: ज्ञानमें द्वैतबुद्धि बाधक नहीं है, प्रत्युत संसारकी आसक्ति बाधक है । भक्तिमें तो प्रेम होता है,आसक्ति नहीं होती । प्रेम आसक्तिको मिटा देता है । अत: ज्ञानमें भक्ति बाधक नहीं है ।
जब साधक पहले ही अपनी धारणा बना लेता है कि परमात्मा निर्गुण ही हैं या परमात्मा सगुण ही हैं, द्वैत ही ठीक है या अद्वैत ही ठीक है, तो फिर उसको वैसा ही दीखने लग जाता है । वास्तवमें इस तरह एक धारणा (आग्रह) बना लेनेसे तत्त्वबोधमें बाधा लगती है । विभिन्न सम्प्रदायोंमें हाँ-में-हाँ मिलानेवाले लोग तो अधिक होते हैं, पर अनुभव करनेवाले बहुत कम होते हैं । जो अपने सम्प्रदायकी बात मानते हुए भी ‘वास्तविक तत्त्व क्या है ?’ ऐसी सच्ची जिज्ञासा रखता है और अपने मतका आग्रह नहीं रखता,उसीको सुगमतापूर्वक तत्त्वबोध हो सकता है । वास्तवमें ज्ञान और भक्तिमें कोई फर्क नहीं है । ज्ञानके बिना प्रेम आसक्ति है और प्रेमके बिना ज्ञान शून्य है । परन्तु ज्ञानमार्गी भक्तिमार्गीका तिरस्कार (उपेक्षा, निन्दा या खण्डन) करता है तो ज्ञानकी सिद्धिमें बाधा लग जायगी और भक्तिमार्गी ज्ञानमार्गीका तिरस्कार करता है तो भक्तिकी सिद्धिमें बाधा लग जायगी । वास्तवमें अभेदवादी भेदवादियोंकी जैसी निन्दा करते हैं, वैसी निन्दा भेदवादी अभेदवादियोंकी नहीं करते । भेदवादी केवल यह कहते हैं कि अभेदवादी मायावादी हैं, क्योंकि वे संसारको माया मानते हैं । परन्तु वास्तवमें अभेदवादी मायावादी नहीं है, प्रत्युत ब्रह्मवादी हैं ।
वेदान्त पढ़नेवाले कोई-कोई अभेदवादी व्यक्ति भक्तिको पराधीन (छोटा) बताते हैं । वास्तवमें भक्ति परम स्वतन्त्र है‒‘भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी’ (मानस, उत्तर॰४५ । ३) । यदि परमात्माको ‘पर’, मानेंगे तो अद्वैत सिद्धान्त भी सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि परमात्माको ‘पर’ माननेसे जीव और ब्रह्मकी एकता कैसे होगी ? अत: परमात्मा ‘पर’ नहीं हैं,प्रत्युत ‘स्व’ हैं । ‘स्व’ के दो अर्थ होते हैं‒स्वयं (स्वरूप) और स्वकीय । परमात्मा स्वकीय (अपने) हैं । स्वकीयकी अधीनता परम स्वाधीनता है, शिरोमणि स्वाधीनता है । इसलिये भक्तिमें महान् स्वाधीनता, प्रभुता, ऐश्वर्य, विलक्षणता आदि है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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