(गत ब्लॉगसे आगेका)
अभेदवादी कहते हैं कि भक्तिमें भगवान् और भक्त‒ ये दो होते हैं और दूसरेसे भय होता है‒‘द्वितीयाद्वै भयं भवति’(बृहदारण्यक॰ १ । ४ । २) । भय दूसरेसे तो होता है, पर आत्मीय (अपने) से भय नहीं होता । भगवान् दूसरे नहीं हैं,प्रत्युत आत्मीय हैं । बालकके लिये माँ द्वितीय नहीं होती,प्रत्युत आत्मीय होती है । इसलिये बालकको माँसे भय नहीं होता । जैसे माँकी गोंदमें जानेसे बालक अभय हो जाता है,ऐसे ही भगवान्की शरणमें जानेसे मनुष्य सदाके लिये अभय हो जाता है ।
असत् (संसार) की तरफ खिंचाव ही असाधन है, जो पतन करनेवाला है और सत् (परमात्मा) की तरफ खिंचाव ही साधन है, जो उन्नति करनेवाला है । ‘ज्ञान’ से बातें तो समझमें आ जाती हैं, पर संसारका खिंचाव नहीं मिटता ।संसारका खिंचाव तो ‘प्रेम’ से ही मिटता है* । तत्त्वज्ञान होनेपर भी परमात्मामें खिंचाव (प्रेम) हुए बिना संसारका खिंचाव सर्वथा नहीं मिटता । अत: प्रेम ज्ञानसे भी श्रेष्ठ है ।वह प्रेम प्रकट होता है‒भगवान्को अपना माननेसे और संसारको अपना न माननेसे । इसलिये सगुणकी भक्ति मुख्य है ।
कर्मयोगीमें त्यागका बल है और ज्ञानयोगीमें विवेकका बल है, पर भक्तियोगीमें भगवान्के विश्वासका बल है ।भगवान्के विश्वासका बल होनेसे भक्त बहुत जल्दी विकारोंसे मुक्त हो जाता है । ज्ञानमार्गके साधकोंका भी यह अनुभव है कि विकारोंके कारण चित्तमें हलचल होनेके समय भगवान्के शरण होकर उनको पुकारनेसे जैसा लाभ होता है, वैसा केवल विचार करनेसे नहीं होता । इसलिये भगवान्ने ज्ञानमार्गके साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कही है‒
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥
(गीता ६ । १४)
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
(गीता २ । ६१)
यह भक्तिकी विशेषता है !
६. भक्तिकी मुख्यता
परमात्मप्राप्तिके सभी साधनोंमें भक्ति मुख्य है ।ज्ञानमार्गी ऐसा कहते हैं कि किसी भी मार्गसे चलो, अन्तमें ज्ञानमें ही आना पड़ेगा, परन्तु यह बात ठीक जँचती नहीं । वास्तवमें भक्ति ही अन्तमें है । ज्ञानमें तो अखण्ड स्थिर रस है, पर भक्तिमें अनन्त, प्रतिक्षण वर्धमान रस है । भक्ति इतनी व्यापक है कि वह प्रत्येक साधनके आदिमें भी है और अन्तमें भी है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* अपनी सत्ताका अभाव कोई नहीं चाहता‒यह निर्गुणका प्रेम है । परन्तु इस (सत्तामात्रके) प्रेमसे संसारका खिंचाव नहीं मिटता । कारण कि इसमें विवेककी प्रधानता रहती है । विवेकमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं । इसलिये विवेककी प्रधानतासे असत्की सत्ता नहीं मिटती,भले ही वह कल्पित क्यों न हो ! परन्तु परमात्मामें विशेष खिंचाव (प्रेम) होनेसे असत्का खिंचाव मिट जाता है । इसलिये श्रीरामचरितमानसमें आया है‒‘प्रेम भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥’ (उत्तर॰ ४९ । ३) ।
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