।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति
  

(गत ब्लॉगसे आगेका)
अभेदवादी कहते हैं कि भक्तिमें भगवान् और भक्त‒ ये दो होते हैं और दूसरेसे भय होता है‒‘द्वितीयाद्वै भयं भवति’(बृहदारण्यक १ । ४ । २) । भय दूसरेसे तो होता हैपर आत्मीय (अपने) से भय नहीं होता । भगवान् दूसरे नहीं हैं,प्रत्युत आत्मीय हैं । बालकके लिये माँ द्वितीय नहीं होती,प्रत्युत आत्मीय होती है । इसलिये बालकको माँसे भय नहीं होता । जैसे माँकी गोंदमें जानेसे बालक अभय हो जाता है,ऐसे ही भगवान्‌की शरणमें जानेसे मनुष्य सदाके लिये अभय हो जाता है ।

असत् (संसार) की तरफ खिंचाव ही असाधन हैजो पतन करनेवाला है और सत् (परमात्मा) की तरफ खिंचाव ही साधन हैजो उन्नति करनेवाला है । ‘ज्ञान’ से बातें तो समझमें आ जाती हैंपर संसारका खिंचाव नहीं मिटता ।संसारका खिंचाव तो ‘प्रेम’ से ही मिटता है* । तत्त्वज्ञान होनेपर भी परमात्मामें खिंचाव (प्रेम) हुए बिना संसारका खिंचाव सर्वथा नहीं मिटता । अत: प्रेम ज्ञानसे भी श्रेष्ठ है ।वह प्रेम प्रकट होता है‒भगवान्‌को अपना माननेसे और संसारको अपना न माननेसे । इसलिये सगुणकी भक्ति मुख्य है ।

कर्मयोगीमें त्यागका बल है और ज्ञानयोगीमें विवेकका बल हैपर भक्तियोगीमें भगवान्‌के विश्वासका बल है ।भगवान्‌के विश्वासका बल होनेसे भक्त बहुत जल्दी विकारोंसे मुक्त हो जाता है । ज्ञानमार्गके साधकोंका भी यह अनुभव है कि विकारोंके कारण चित्तमें हलचल होनेके समय भगवान्‌के शरण होकर उनको पुकारनेसे जैसा लाभ होता हैवैसा केवल विचार करनेसे नहीं होता । इसलिये भगवान्‌ने ज्ञानमार्गके साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कही है‒
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥
                                                                           (गीता ६ । १४)

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
                                                                          (गीता २ । ६१)
यह भक्तिकी विशेषता है !

६. भक्तिकी मुख्यता

परमात्मप्राप्तिके सभी साधनोंमें भक्ति मुख्य है ।ज्ञानमार्गी ऐसा कहते हैं कि किसी भी मार्गसे चलोअन्तमें ज्ञानमें ही आना पड़ेगापरन्तु यह बात ठीक जँचती नहीं । वास्तवमें भक्ति ही अन्तमें है । ज्ञानमें तो अखण्ड स्थिर रस हैपर भक्तिमें अनन्तप्रतिक्षण वर्धमान रस है । भक्ति इतनी व्यापक है कि वह प्रत्येक साधनके आदिमें भी है और अन्तमें भी है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
__________________
             * अपनी सत्ताका अभाव कोई नहीं चाहता‒यह निर्गुणका प्रेम है । परन्तु इस (सत्तामात्रके) प्रेमसे संसारका खिंचाव नहीं मिटता । कारण कि इसमें विवेककी प्रधानता रहती है । विवेकमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं । इसलिये विवेककी प्रधानतासे असत्‌की सत्ता नहीं मिटती,भले ही वह कल्पित क्यों न हो ! परन्तु परमात्मामें विशेष खिंचाव (प्रेम) होनेसे असत्‌का खिंचाव मिट जाता है । इसलिये श्रीरामचरितमानसमें आया है‒‘प्रेम भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥’ (उत्तर ४९ । ३)