(गत ब्लॉगसे आगेका)
भक्ति प्रत्येक साधनके आरम्भमें पारमार्थिक आकर्षणके रूपमें रहती है, क्योंकि परमात्मामें आकर्षण हुए बिना कोई मनुष्य साधनमें लग ही नहीं सकता । साधनके अन्तमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके रूपमें भक्ति रहती है‒‘मद्धक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८ । ५४), क्योंकि इसकी प्राप्तिमें ही साधनकी पूर्णता है । इसलिये ब्रह्मसूत्रमें अन्य सब धर्मोंकी अपेक्षा भगवद्धक्ति-विषयक धर्मको श्रेष्ठ बताया गया है‒‘अतस्लितरज्यायो लिङ्गाच्च’ (३ । ४ । ३९) । गीतामें भी अर्जुनने भगवान्से प्रश्न किया कि सगुण और निर्गुण‒दोनों उपासकोंमें कौन श्रेष्ठ है तो भगवान्ने उत्तरमें सगुण उपासकोंको ही श्रेष्ठ बताया‒
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता: ॥
(१२ । २)
‘मेरेमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं ।’
प्रत्येक साधकको अन्तमें भक्तिमार्गमें आना ही पड़ेगा,क्योंकि वास्तविक अद्वैत भक्तिमें ही है । गीतामें आया है‒
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोध परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्धक्तिं लभते पराम् ॥
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
(१८ । ५३‒५५)
‘अहङ्कार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर साधक ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है ।’
‘वह ब्रह्मभूत-अवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी इच्छा करता है । ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त हो जाता है ।’
‘उस पराभक्तिसे मेरेको, मैं जितना हूँ और जो हूँ‒ इसको तत्त्वसे जान लेता है तथा मेरेको तत्त्वसे जानकर फिर तत्काल मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है ।’
‘मैं जितना हूँ और जो हूँ’ (यावान् यश्चास्मि)‒यह बात सगुणकी ही है, क्योंकि यावान्-तावान् निर्गुणमें हो सकता ही नहीं, प्रत्युत सगुणमें ही हो सकता है* । इससे सगुणकी विशेषता तथा मुख्यता सिद्ध होती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* चतुःश्लोकी भागवतमें भी भगवान्ने ‘यावान्’ पदका प्रयोग करते हुए ब्रह्माजीसे कहा है‒
यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मक: ।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ (श्रीमद्भा॰ २ । ९ । ३१)
‘मैं जितना हूँ, जिस भावसे युक्त हूँ, जिन रूप, गुण और लीलाओंसे समन्वित हूँ, उन सबके तत्त्वका विज्ञान तुम्हें मेरी कृपासे ज्यों-का-त्यों प्राप्त हो जाय ।’
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