(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानमार्गमें तो तत्त्वसे जानना (ज्ञात्वा) और प्रविष्ट होना (विशते)‒ये दो ही होते हैं, पर भक्तिमार्गमें भगवान्ने तत्त्वसे जानना (ज्ञातुम्) और प्रविष्ट होना (प्रवेष्टुम्) के सिवाय अपने दर्शन (द्रष्टुम्) की बात भी कही है* । भगवान् इन्द्रियोंका विषय न होनेपर भी इन्द्रियोंका विषय बन जाते हैं‒यह भगवान्की विलक्षण कृपा है ! यह विलक्षणता भक्तिमें ही है, ज्ञानमें नहीं ।
ज्ञानकी प्रधानता होनेपर साधक भगवान्के निर्गुण रूपको ही जानता है, पर भक्तिकी प्रधानता होनेपर साधक भगवान्के समग्र रूपको जानता है । जैसे बछड़ा गायके एक स्तनका पान करता है तो गायके चारों स्तनोंसे दूध टपकने लगता है, ऐसे ही भक्तका भगवान्की तरफ आकर्षण (प्रेम) होता है तो भगवान् कृपा करके अपने समग्ररूपको प्रकट कर देते हैं । भगवान् उसके अज्ञानान्धकारको दूर कर देते हैं**उसका उद्धार भी भगवान् कर देते हैं† । तात्पर्य है कि अनन्य भक्तको अपने उद्धारके लिये कुछ करना नहीं पड़ता । उसको ज्ञान करानेकी, उसका उद्धार करनेकी जिम्मेवारी भगवान्पर होती है । भक्त सब क्रियाएँ करते हुए भी सदा भगवान्में ही बरतता है, भगवान्में ही स्थित रहता है‡ । इतना ही नहीं, भक्त योगभ्रष्ट भी नहीं होता, क्योंकि वह अपने साधनका आश्रय न रखकर भगवान्का ही आश्रय रखता है । इसलिये भगवान् कहते हैं‒
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मदव्यपाश्रय: ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
(गीता १८ । ५६)
‘मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है ।’
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
(गीता १८ । ५८)
‘मेरेमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा ।’
तात्पर्य है कि भगवान् भक्तपर विशेष कृपा करके उसके साधनकी सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंको भी दूर कर देते हैं और अपनी प्राप्ति भी करा देते हैं । इसलिये ब्रह्म-सूत्रमें आया है‒‘विशेषानुग्रहश्च’ (३ । ४ । ३८) ‘भगवान्की भक्तिका अनुष्ठान करनेसे भगवान्का विशेष अनुग्रह होता है ।’
जहाँ भक्ति होती है, वहाँ ज्ञान और वैराग्य अपने-आप आ जाते हैं । अत: भक्तको ज्ञान और वैराग्यकी प्राप्तिके लिये परिश्रम नहीं करना पड़ता । श्रीमद्भागवत-माहात्म्यमें ज्ञान और वैराग्यको भक्तिके बेटे बताया है‒
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ ।
ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ ॥
(१ । ४५)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ (गीता ११ । ५४)
** तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ (गीता १० । ११)
† तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ (गीता १२ । ७)
‡ सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित: ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ (गीता ६ । ३१)
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