(गत ब्लॉगसे आगेका)
जहाँ माँ जायगी, वहाँ बेटे भी जायँगे ही ! इसलिये ‘बोधसार’ में आया है‒
यद्यन्यत् साधनं नास्ति भक्तिरस्ति महेश्वरे ।
तदा क्रमेण सिध्यन्ति विरक्तिज्ञानमुक्तयः ॥
(बोधसार, भक्ति॰ ५)
‘यदि अपनेमें परमेश्वरकी भक्ति विद्यमान है तो फिर अन्य साधन न होनेपर भी क्रमश: वैराग्य, ज्ञान तथा मोक्ष‒तीनोंकी सिद्धि हो जाती है ।’
जब शुद्ध भक्तिका वर्णन होता है, तब वह निर्गुण (गुणोंसे अतीत) होता है, जैसे‒‘मत्सेवायां तु निर्गुणा’(श्रीमद्भा॰ ११ । २५ । २७) आदि । परन्तु ज्ञानमार्गपर चलनेवाले, ज्ञानके संस्कारवाले जब भक्तिका वर्णन करते हैं,तब उसमें सत्त्वगुणकी प्रधानता रहती है । इसलिये ज्ञानीलोग भक्ति (प्रेम) का जो वर्णन करते हैं, वह असली (शुद्ध) भक्तिका वर्णन नहीं होता, प्रत्युत ज्ञानमिश्रित भक्तिका वर्णन होता है, जो कि विक्षेप-दोषको दूर करनेवाली होनेसे ज्ञानका साधन है, प्रेमाभक्ति नहीं । प्रेमाभक्ति तो तत्त्वज्ञानसे भी आगेकी चीज है । ज्ञानमार्गवाले प्रेमको अन्तःकरणकी एक वृत्ति (सात्त्विक भाव) मानते हैं, जबकि प्रेम अन्तःकरणकी वृत्ति है ही नहीं । प्रेम तो स्वयंसे होता है । प्रेममें गुण (जड़ता) है ही नहीं* । मीराबाईमें शुद्ध प्रेम था, इसलिये उनका शरीर भी चिन्मय होकर भगवान्के श्रीविग्रहमें लीन हो गया,क्योंकि भक्तिमें जड़ वस्तु रहती ही नहीं, प्रत्युत सब कुछ चिन्मय हो जाता है । गोपियोंको भी सब जगह कृष्ण-ही-कृष्ण दीखते थे । उनके शरीर भी चिन्मय होकर एक तालाबमें लीन हो गये थे, जो ‘गोपीतलाई’ (द्वारका) नामसे प्रसिद्ध है । उस तालाबकी मिट्टी ही ‘गोपीचन्दन’ कहलाती है ।
ज्ञानमार्गमें तो संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, पर भक्तिमार्गमें स्वतन्त्र तत्त्व ही नहीं है, प्रत्युत सब कुछ भगवान् ही हैं‒‘वासुदेव: सर्वम्’ । ज्ञानमार्गवाले मुक्तिको सबसे ऊँची चीज मानते हैं, फिर वे मुक्तिसे भी आगेकी चीज प्रेम (प्रेमाभक्ति या पराभक्ति) को कैसे समझें ? मुक्तिमें तो अखण्ड रस है, पर प्रेममें अनन्त रस है । प्रेम मुक्ति, तत्त्वज्ञान,स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी चीज है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ (नारदभक्तिसूत्र ५४)
‘यह प्रेम गुणरहित है, कामनारहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है,विच्छेद-रहित है, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर है और अनुभव-रूप है ।’
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