(गत ब्लॉगसे आगेका)
‘बोधसार’ में आया है‒
द्वैतं मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पित द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
(बोधसार, भक्ति॰ ४२)
‘बोधसे पहलेका द्वैत मोहमें डालता है, परन्तु बोध हो जानेपर भक्तिके लिये कल्पित द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर होता है ।’
प्रेमाभक्ति तत्त्वज्ञान होनेके बाद भी हो सकती है और सीधे भी हो सकती है । भक्तका भगवान्में गाढ़ अपनापन (आत्मीयता) होनेसे तत्त्वज्ञान हुए बिना भी सीधे प्रेमाभक्ति प्राप्त हो सकती है । प्रेमाभक्ति प्राप्त होनेके बाद भगवत्कृपासे अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है‒
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
(मानस, अरण्य॰ ३६ । ५)
भगवान् कहते हैं‒
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
(गीता १० । १०-११)
‘उन नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है । उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूपमें रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ ।’
गुरुजनोंसे मिलनेवाले ज्ञानकी अपेक्षा जगद्गुरु भगवान्से मिलनेवाला ज्ञान अत्यन्त विलक्षण होता है !
ज्ञानीमें तो अखण्ड आनन्द रहता है, पर प्रेमी भक्तमें प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द रहता है । इसलिये भक्त ज्ञानीकी तरह शान्त, एकरस नहीं रहता, प्रत्युत उसमें विभिन्न विलक्षण भावोंका उछाल आता रहता है‒
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्यचिच्च ।
विलज्ज उदगायति नृत्यते च
मद्धक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । १४ । २४)
‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करते-करते गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण,प्रभाव और लीलाओंका चिन्तन करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारंबार रोता रहता है, कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है और कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसारको पवित्र कर देता है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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