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गीताजीके श्लोकोंसे तो यही बात सिद्ध होती है किसब कर्मोंका नाम यज्ञ है । कैसे सिद्ध होती है इसपर विचार किया जाता है । यज्ञोंका विशेष वर्णन आता है गीताके चौथे अध्यायमें २४वें श्लोकसे ३२वें श्लोकतक । इनका प्रकरण आरम्भ होता है चौथे अध्यायके २३वें श्लोकसे । उसमें भगवान् कहते हैं‒
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥
इसमें बतलाया गया है कि यज्ञके लिये आचरित सम्पूर्ण कर्म सर्वथा विलीन हो जाते हैं । अर्थात् वे शुभाशुभ फलका उत्पादन नहीं करते, फलदायक‒बन्धनकारक नहीं होते, जन्म देनेवाले नहीं होते । कर्मोंकी प्रविलीनताका यही अर्थ है ।
इसी बातको दूसरे ढंगसे भगवान् कहते हैं तीसरे अध्यायके ९वें श्लोकमें‒
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
यज्ञार्थ कर्मसे भिन्न कर्ममें लगनेपर यह लोकसमुदाय कर्मोंके बन्धनमें बँधता है ।
अर्थात् यज्ञके अतिरिक्त जो भी कर्म होते हैं, वे सभी बन्धनकारक होते हैं । केवल यज्ञार्थ कर्म बन्धनकारक नहीं होते । उपर्युक्त दोनों ही स्थलोंमें ‘यज्ञ’ शब्द आया है । चौथे अध्यायके २४वें श्लोकसे भगवान् यज्ञोंका वर्णन आरम्भ करते हैं‒
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
इस प्रकरणमें चौदह यज्ञोंका उल्लेख किया गया है,जिनमें ‘प्राणायाम’ का नाम भी आया है‒
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥
(४ । २९)
अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति ।
(४ । ३०)
ऊपर ‘जुह्वति’ क्रिया दी गयी है, आगे और भी क्रियाएँ बतायी गयी हैं । जैसे उसी अध्यायके २८वें श्लोकमें भगवान् कहतै हैं‒
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥
दान-पुण्य आदि जितने भी कर्म पैसोंसे या पदार्थोंसे सिद्ध होते हैं, उन्हींको ‘द्रव्ययज्ञ’ कहा गया है । इसी प्रकार जिसमें इन्द्रियोंका, मनका, शरीरका संयम किया जाय, उस तपस्याको भी ‘यज्ञ’ कहा गया है । यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि‒पातञ्जलयोगके ये आठ अंग तथा हठयोग, लययोग, मन्त्रयोग आदि जो अन्य योग हैं, उन्हें भगवान्ने ‘योगयज्ञ’ कहा है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
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