।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७१, बुधवार
मत्स्य-जयन्ती, गणगौर
भगवत्प्राप्तिका सुगम
तथा शीघ्र सिद्धिदायक साधन


(गत ब्लॉगसे आगेका)
तात्पर्य है कि सब जगह एक परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण हैं‒‘सर्वं ब्रह्मात्मकम्’ उसमें न मैं हैन तू हैन यह है,न वह हैन भूत हैन भविष्य हैन वर्तमान हैन सर्ग हैन प्रलय हैन महासर्ग हैन महाप्रलय हैन देवता हैन मनुष्य हैन पशु हैन पक्षी हैन भूत है न प्रेत हैन पिशाच हैन जड़ हैन चेतन हैन स्थावर हैन जंगम हैकुछ भी नहीं है !एक परमात्मा ही इन सब रूपोंमें बने हुए हैं ! इस बातको दृढ़तासे मान लेंस्वीकार कर लेंयह सब साधनोंसे श्रेष्ठ साधन है । भागवतएकादश स्कन्धके उनतीसवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोककी टीकामें एकनाथजी महाराज भगवान्‌की ओरसे लिखते हैं कि हे उद्धव ! सबमें मेरेको देखनेसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है‒यह मैं माँ देवकीकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ ।*

सब कुछ भगवान् ही हैं‒यह बात हमारेको दीखे चाहे न दीखेहम जानें चाहे न जानेंहमारेको अनुभव हो चाहे न होपरन्तु यह दृढ़तासे स्वीकार कर लें कि बात वास्तवमें यही सर्वोपरि है । कमी है तो हमारे माननेमें कमी है,वास्तविकतामें कमी नहीं है । जैसेपहले क-ख-ग आदि अक्षरोंको सीखते हैंफिर पुस्तकोंमें वे वैसे ही दीखने लग जाते हैंऐसे ही पहले केवल इस बातको मान लें कि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’फिर वैसा ही अनुभव होने लग जायगा । इसका अनुभव करनेके लिये कुछ करना नहीं हैकहीं आना-जाना नहीं है । भजन-ध्यानसत्संग-स्वाध्याय आदि जो कर रहे हैंवे करते रहें । इसके लिये कोई नया साधन नहीं करना हैकेवल दृढ़तासे स्वीकार कर लेना है कि सब कुछ परमात्मा ही हैं । कारण कि सृष्टि-रचनाके समय भगवान्‌ने कहींसे कोई मसालासामग्री नहीं मँगायीप्रत्युत यह संकल्प किया कि मैं एक ही बहुत रूपोंसे हो जाऊँ ‒
                  ‘सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (छान्दोग्य ६ । २ । ३)
                  ‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय २ । ६)
                  ‘एकं रूपं बहुधा यः करोति’ (कठ २ । २ । १२)
        ‘एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति ।’(गोपालपूर्वतापनीय)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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         * यापरी कायावाचामनें । सर्वभूतीं भगवद्धजन । हेंचि मुख्यत्वें श्रेष्ठ साधन । भक्त सज्ञान जाणती ।। ३८० ।। ब्रह्मप्राप्तिचें परम कारण हेंचि एक सुगम साधन । मजही निश्रयें मानलें जाण । देवकीची आण उद्धवा ।। ३८१ ।। (एकनाथी भागवत)