May
02
(गत ब्लॉगसे आगेका)
चौथे अध्यायके १५वें श्लोकमें श्रीभगवान् कहते हैं‒
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षभिः ।
कुरु कर्मेव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥
यहाँ भी भगवान्ने कर्मपर जोर दिया है । उपर्युक्त श्लोकमें ‘एवं ज्ञात्वा’ से इस तत्त्वको जाननेकी बात जो कही गयी है, वह जिस प्रसंगसे कही गयी है, वह प्रसंग चौथे अध्यायके १३वें श्लोकमें आता है । वह इस प्रकार है‒
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
यहाँ भी ‘कर्म’ शब्द आया है । इस कर्मके तत्त्वपर ध्यान देना चाहिये । कर्ममात्रका नाम ‘यज्ञ’ है‒यह बात अब बतलायी जाती है । चौथे अध्यायके १३वें श्लोककी अवतारणा हुई है उसी अध्यायके नवें श्लोकसे । नवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’‒मेरा जन्म-कर्म दिव्य है । वह कर्म दिव्य क्यों है ? अपने कर्मोंकी दिव्यताका प्रकरण भगवान्ने चलाया है १३वें श्लोकसे और जन्मकी दिव्यता भगवान्ने कही है चौथे अध्यायके छठे श्लोकसे । वहाँ उन्होंने जन्मकी दिव्यताके साथ अपने जन्मका हेतु बताया और कहा कि ‘मेरा जन्म-कर्म दिव्य है, इस बातको जो जानता है, वह मुक्त हो जाता है ।’ चौथे अध्यायके १३वें श्लोकमें श्रीभगवान् कहते हैं‒
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
‘चातुर्वर्ण्यकी जब मैंने रचना की, तब यह मेरा कर्म हुआ; और मैं उसका कर्ता हुआ; तथापि तू मुझ कर्ताको भी अकर्ता जान ।’ इसके बाद वे कहते हैं‒
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
‘मुझे कर्म बाँधते नहीं और मेरी कर्मफलमें कोई स्पृहा नहीं है‒इस प्रकार जो जान लेता है, वह कर्मोंसे नहीं बँधता ।’ इस प्रकार भगवान्ने अपना कर्म बताया और यह भी बताया कि जो उनके कर्मोंका रहस्य जान लेता है, वह बँधता नहीं है । वह क्यों नहीं बँधता ? इसके दो हेतु बताये गये हैं‒‘तस्य कर्तारमपि मां विद्धि अकर्तारम्’‒‘उन कर्मोंके कर्ता होते हुए भी मुझको अकर्ता समझ ।’ इस कथनसे तात्पर्य यह निकला कि ‘भगवान् कर्तृत्वाभिमानसे रहित हैं ।’ साथ ही ‘न मे कर्मफले स्पृहा’ कहकर वे बताते हैं कि मुझमें कर्मफलकी इच्छा नहीं होती । जिस कर्ममें कर्तृत्वका अभिमान न हो और फलकी इच्छा न हो, वह कर्म बन्धनकारक नहीं होता, यह सिद्धान्त है । इसलिये भगवान् कहते हैं‒‘इति मां योऽभिजानाति’‒‘जो कोई भी मुझे ऐसा जान लेता है,’‘कर्मभिर्न स बध्यते’‒‘कर्मसे वह नहीं बँधता है । मेरी तरह कर्तृत्व-अभिमान और फलासक्तिसे रहित होकर कोई भी कर्म करेगा, वह भी नहीं बँधेगा । इस प्रकार भगवान्ने अपने कर्मोंकी दिव्यता बतायी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
|