May
03
(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो कर्म बाँधनेवाले हैं, वे ही कर्म मुक्तिदायक हो जायँ, यह दिव्यता है कर्मोंकी । इसीलिये कर्मयोगके प्रसंगमें भगवान्ने दूसरे अध्यायमें कहा है–‘योगः कर्मसु कौशलम्’‒‘कर्मोंमें योग ही ‘कुशलता’ है ।’ ‘योग’ किसका नाम है ? ‘समत्वं योग उच्यते’‒‘समताको ही योग कहा जाता है ।’ यह समता कैसे प्राप्त होती है ? ‘सङ्गं त्यक्त्वा’और ‘सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा’‒मनुष्य आसक्तिका त्याग करे और सिद्धि-असिद्धिमें सम हो जाय, तब समता आती है । समताका नाम ही योग है और योग ही कर्ममें कुशलता है । जो कर्म बाँधनेवाले हैं, वे ही मुक्ति देनेवाले हो जायँ‒यही कर्मोंकी कुशलता है । इसीलिये कहा गया है‒
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ॥
कुछ लोग कहते हैं कि जबतक मुमुक्षा उत्पन्न न हो,तभीतक कर्म करना है और मुमुक्षा उत्पन्न हो जानेपर मनुष्यको चाहिये कि वह संन्यास ले ले और कर्मोंका त्याग कर दे । यह अद्वैत-वेदान्तकी प्रक्रिया है । पर चौथे अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
‘मुमुक्षु पुरुषोंने ऐसा जानकर कर्म किया है ।’‒कर्म किया है, कर्मोंका त्याग नहीं ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।
‘इसलिये तू कर्म ही कर,’ ‘कर्मैव कुरु ।’ इस प्रकार भगवान्ने यहाँ कर्म करनेपर ही जोर दिया । फिर चौथे अध्यायके १६वें श्लोकमें वे कहते हैं‒
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥
‘कर्म क्या है, अकर्म क्या है’‒इस बातको लेकर बड़े-बड़े पण्डित भी मोहमें पड़ जाते हैं । अब मैं तुझे वह कर्म कहूँगा,जिसे जानकर तू अशुभसे‒बन्धनसे मुक्त हो जायगा ।’ इस प्रकार १६वें श्लोकसे उपर्युक्त प्रसंगका उपक्रम करके उपसंहार करते हैं उसी अध्यायके ३२वें श्लोकमें । १६वें श्लोकमें उन्होंने जो बात कहीं‒‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ वही बात चौथेके ३२वेंमें उपसंहार करते हुए कही है‒‘एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।’इसी कर्मके अन्तर्गत यज्ञ हैं । जितने भी शुभ कर्म हैं, उन्हींका नाम है‒‘यज्ञ’ और उन्हीं कर्मोंके द्वारा भगवान्के पूजनकी बात कही गयी है । अठारहवें अध्यायके ४६वें श्लोकमें‒‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।’पूजाका ही नाम यज्ञ है । इस प्रकार जितने भी कर्म हैं, वे सब-के-सब यज्ञ हैं । ‘यज्ञ’ शब्दके अन्तर्गत जितने भी कर्तव्य-कर्म हैं, वे सब आ गये । अब जरा ध्यान देकर विचार करें‒‘यज्ञ’ शब्दका क्या अर्थ होना चाहिये ? गीताके अनुसार यज्ञ आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, सब-के-सब ‘यज्ञ’ शब्दके अन्तःपाती हैं । इसी ‘यज्ञ’ शब्दका चतुर्थी विभक्तिमें रूप होता है, ‘यज्ञाय’‒यज्ञके लिये । ‘यज्ञार्थ’ का भी वही अर्थ होता है जो ‘यज्ञाय’ का है । तीसरे अध्यायके ९वें श्लोकमें आया है‒‘यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।’‘यज्ञार्थ कर्मको छोड़कर अन्य सभी कर्म बन्धनकारक होते हैं ।’ ‘यज्ञार्थ कर्म’ का अर्थ है‒यज्ञके लिये किये जानेवाले कर्म ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
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