(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह ठीक हुआ, यह बेठीक हुआ । नफा हुआ, नुकसान हुआ । राजी हुए, नाराज हुए । यह वैरी है, यह मित्र है । इसने मान कर दिया, इसने अपमान कर दिया । इसने निन्दा कर दी, इसने प्रशंसा कर दी । इसने आराम, सुख दिया, इसने दुःख दिया । अब इनको देखते रहोगे तो भगवान् नहीं मिलेंगे । अतः राग-द्वेषके वशीभूत न हों, राजी-नाराज न हों‒‘तयोर्न वशमागच्छेत्’ (गीता ३ । ३४) । राजी-नाराज न होनेवालेको भगवान्ने त्यागी बताया है‒‘ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति ।’ (गीता ५ । ३) जो राग-द्वेष नहीं करता, उसको भगवान्ने अपना प्यारा भक्त बताया है (गीता १२ । १७) । संसारमें अच्छा और मन्दा तो होता ही रहता है । अतः साधकके लिये इसमें क्या ठीक और क्या बेठीक ‘किं भद्रं किमभद्र वा’ ( श्रीमद्धा ११ । २८ । ४) ।
यह संसार तो एक तमाशा है, खेल है । सिनेमाके परदेपर कभी लड़ाई दीख जाती है, कभी शान्ति दीख जाती है । कभी दीखता है कि आग लग गयी, हाहाकार मच गया,गाँव-के-गाँव जल गये, पर परदेको देखो तो वह गरम ही नहीं हुआ ! कभी दीखता है कि वर्षा आ गयी, नदीमें जोरसे बाढ़ आ गयी, बड़े-बड़े पत्थर बह गये, पशु-पक्षी बह गये, पर परदेको देखो तो वह गीला ही नहीं हुआ ! परन्तु दर्शककी दृष्टि तमाशेकी तरफ ही रहती है, परदेकी तरफ नहीं । इसी तरह यह संसार भी मायाका एक परदा है । जैसे सिनेमा अँधेरेमें ही दीखता है, ऐसे ही माया अज्ञानरूपी अँधेरेमें ही दीखती है । यदि पूरे सिनेमा हालमें बत्तियाँ जला दी जायें तो तमाशा दीखना बन्द हो जायगा । इसी तरह ‘वासुदेवः सर्वम्’(गीता ७ । १९) ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒ऐसा प्रकाश हो जाय तो यह तमाशा रहेगा ही नहीं । मशीन तो भगवान् हैं और उसमें मायारूपी फिल्म लगी है । परदेकी जगह यह संसार है । प्रकाश परमात्माका है । अब इस मायाको सच्चा समझकर राजी-नाराज हो गये तो फँस गये ! अतः सन्तोंने कहा है‒‘देखो निरपख होय तमाशा ।’
ठहरनेवाला कोई नहीं है । न अच्छा ठहरनेवाला है, न बुरा ठहरनेवाला है । अपनी उसमें कोई वस्तु टिकी है क्या ?अवस्था टिकी है क्या ? घटना टिकी है क्या ? कोई चीज स्थायी रही है क्या ? पर आप तो वे-के-वे ही हैं । आपके सामने कितना परिवर्तन हुआ ! हमारे देखते-देखते भी कितना परिवर्तन हो गया ! इस शहरके मकान, सड़क,रिवाज आदि सब बदल गये । परन्तु संसारमें परमात्मा और शरीरमें आत्मा‒ये दोनों नहीं बदले । शरीर संसारका साथी है और आत्मा परमात्माका साथी है । इसमें कोई कहे कि शरीर मेरा है, तो फँस गया ! जब शरीर संसारका साथी है तो फिर आप एक शरीरको ही अपना क्यों मानते हो ? मानो तो सब शरीरोंको अपना मानो, नहीं तो इस शरीरको भी अपना मत मानो ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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