(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह मनुष्य चाहे तो भगवान्का माँ-बाप बन जाय,भगवान्का दास बन जाय, भगवान्का भाई-बन्धु बन जाय,भगवान्की स्त्री बन जाय, भगवान्का बच्चा बन जाय,भगवान्का शिष्य बन जाय या गुरु बन जाय । अपने कुटुम्बसे ही तो आप राजी होते हैं । भगवान्का सम्पूर्ण यह मनुष्य बन सकता है । यह भगवान्का सब कुछ बन सकता है । भगवान् उसे वही बना लेंगे और वैसी-की-वैसी मर्यादा उसके साथ निभायेंगे । वे उसके सुपुत्र बन जायँगे । भाई भी बनेंगे तो असली । सुपुत्र-सत्पति-सन्माता सब कुछ बन जायेंगे भगवान् । शिष्य बने तो श्रेष्ठ चेला बनेंगे भगवान् । वसिष्ठजीके चेला श्रीराम थे ही । विश्वामित्रजीका चरण वे चाँपते ही थे । वे जहाँ जो भी बनते हैं, स्वाँग पूरा उतारते हैं । भगवान्का सब कुछ मनुष्य बन सकता है, इतना बड़ा अधिकार मनुष्यको भगवान्ने दिया है ।
अब उसके लिये कहते हैं‒‘यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।’ इसके पूर्व ८वें श्लोकमें कहा‒‘नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।’ ‘नियत कर्म कर और न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है ।’ ‘अकर्मणः ते शरीरयात्रापि न प्रसिद्धज्ञेत् ।’ ‘कुछ नहीं करेगा तो तेरा निर्वाह भी नहीं होगा, जीवन भी नहीं चलेगा । कर्म करनेसे ही जीवन-निर्वाह होगा ।’ साथ ही शास्त्रोंमें यह भी कहा है कि कर्मोंसे जन्तु बँधता है । ‘कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुव्यते ।’ यह ध्यान देनेकी बात है कि यहाँ ‘जन्तु’ शब्दका प्रयोग हुआ है । ‘जन्तु’ शब्दका स्वारस्य यह है कि जन्तु (जानवर) ही बन्धनमें आते हैं, मनुष्य नहीं । मनुष्य बँधता है सकाम कर्म करके, स्वार्थबुद्धिसे । ऐसे मनुष्यको जन्तु ही समझें । गीता भी कहती है‒‘अज्ञानेनावृत ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।’ जो स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर मोहमें फँसे हुए हैं, वे मनुष्य थोड़े ही हैं, वे तो जन्तु हैं‒भले ही उनकी आकृति मनुष्यकी-सी ही हो । ‘यद् यद्धि कुरुते जन्तुस्तत् तत् कामस्य चेष्टितम् ।’ जानवरकी सारी चेष्टाएँ कामयुक्त‒स्वार्थप्रेरित होती हैं । कामनासे ही कर्म बन्धनकारक होता है ।
इसलिये भगवान् कह हैं‒
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
जो कर्म परमात्माकी प्रसन्नताके लिये, लोकसंग्रहके लिये, सब लोगोंके उद्धारके लिये, आसक्ति, स्वार्थ और कामनाको त्यागकर किया जाता है, वह बाँधता नहीं है । यही है ‘यज्ञ’ ।
इसके अगले श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒‘सहयज्ञा प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।’ सृष्टिके आदिमें प्रजापति ब्रह्माने यज्ञोंके साथ प्रजाओंको उत्पन्न किया । यहाँ ‘प्रजाः’शब्दके अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-सभी आ जाते हैं । ‘प्रजाः’ शब्दके साथ ‘सहयज्ञाः’ विशेषणको देखकर यह शंका होती है कि यज्ञमें सबका अधिकार तो है नहीं, फिर भगवान्ने सारे प्रजाजनोंके साथ यह विशेषण क्यों लगाया ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
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