।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७१, शनिवार
यमद्वितीया, भैयादूज
मानसमें नाम-वन्दना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

‘कामिहि नारि पिआरि जिमि’इस उदाहरणसे श्रीरघुनाथजी महाराजका रूप लिया गया और ‘लोभिहि प्रिय जिमि दाम’लोभीकी तरह मेरेको भगवान्‌का नाम प्यारा लगे । लोभीको सुन्दर रूप नहीं, प्रत्युत संख्या प्यारी लगती है । उसको एक रुपयाका नोट गड्डीमेंसे निकाल कर दे दो और पाँच या दसका फटा हुआ नोट दिखाओ और उससे पूछो कि दोनोंमेंसे कौन-सा लोगे ? लोभी एक रुपयाका सुन्दर नोट नहीं लेगा, पुराना, मैला, फटा दस रुपयेको ही लेगा । एक रुपया सुन्दर है तो वह क्या करे ? वह तो गिनती देखता है कि यह पाँचका है, यह दसका है । ऐसे ही गोस्वामीजी कहते हैं, सुन्दर रूप रामजीका प्यारा लगे और नामकी गिनती बढ़ाते ही चले जायें । ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’नाम लोभीकी तरह लिया जाय ।

यहाँ ये दो दृष्टान्त बतानेका तात्पर्य है कि इन दोपर ही लोग आकृष्ट होते हैं‘माधोजीसे मिलना कैसे होय । सबल बैरी बसे घट भीतर कनक कामिनी दोय ॥’ एक तो स्त्री और एक रुपयोंकी गिनतीइन दोकी जगह क्या करें ? इनमें संसारकी सुन्दरताकी जगह तो श्रीरघुनाथजी महाराजका रूप बैठा दें और रुपयोंकी गिनतीकी जगह भगवान्‌के नामको बैठा दें । इस तरह दोनोंकी खाना-पूर्ति हो गयी न ! सुन्दरता भगवान्‌के रूपकी और गिनती उनके नामकी । इतना कहनेपर भी सन्तोष नहीं हुआ । फिर कहा‘तिमी रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम’निरंतर नहीं होगा तो गलती रह जायगी । सांसारिक रुपये हैं तो प्यारे और अच्छे भी लगते हैं परन्तु जब इंक्वायरी आती है, दो नम्बरके रुपये भीतर रखे हैं, इधर सिपाही आ जाते हैं, तो मनसे यह इच्छा होती है कि अभी रुपये नहीं होते तो अच्छे थे । रुपयोंका लोभ होनेपर भी वह रुपयोंको नहीं चाहता । उसी तरह भोगोंको भी निरन्तर नहीं चाहता है । गोस्वामीजीने दृष्टान्त देनेमें ध्यान रखा कि साथमें ‘नहीं’ न आ जाय कहीं । कामी और लोभीको रूप और दाम प्यारे तो लगते हैं, पर प्रियातामें कभी-कभी अन्तर भी पड़ जाता है । हमारे रघुनाथजीके रूप और नामकी प्रियतामें कहीं अन्तर नहीं पड़ जाय ।
नाम-जपका चमत्कार
‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’भगवान्‌के नामका जप होता रहे और मनमें भगवान्‌के श्रीविग्रहका ध्यान होता रहे, मन खींच जाय उधर ‘राम’ नाममें ही बस, उसके बाद आप-से-आप ‘राम-राम’ होता है । ‘रोम-रोम उचरंदा है’ फिर करना नहीं पड़ता । ‘राम’ नाम लेना नहीं पड़ता । इतना खींच जाता है कि छुड़ाये नहीं छूटता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे