।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७१, रविवार
मानसमें नाम-वन्दना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

बंगालमें चैतन्य महाप्रभु नामके बड़े प्रेमी हुए हैं । उनके यहाँ कोई एक भक्त था । वह ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण....॥’ निरन्तर जप करता रहता था । किसीने चैतन्य महाप्रभुसे जाकर कह दिया‘महाराज ! यह तो टट्टी फिरता हुआ भी नाम जपता रहता है ।’ जब उससे पूछा गया तो उसने कहा ‘ऐसा होता तो है ।’ चैतन्य महाप्रभुने बुलाकर उससे कहा‘उस समय खयाल रखा कर, बोला मत कर ।’ अब वह क्या करता ? टट्टी फिरता तो जीभको पकड़ लेता । फिर उसकी लोगोंने शिकायत की‘महाराज ! यह टट्टी जाते समय जीभको पकड़े रखता है ।’ महाप्रभुने कहा‘तू यह क्या करता है ?’ तो उसने कहा‘महाराज मैं क्या करूँ, जीभ मानती ही नहीं, पर आपने कह दिया इसलिये आपकी आज्ञापालन करनेके लिये जीभको पकड़ लेता हूँ ।’ तब उन्होंने कहा कि ‘तेरे लिये किसी अवस्थामें भी नाम जपनेमें कोई दोष नहीं है, पर जीभ मत पकड़ा कर ।’ इस प्रकार जिसको भगवन्नाममें रस आता है, वही जानता है कि नाममें कितनी विलक्षणता है, क्या अलौकिकता है ! पर जो हरदम ही नाम जपते हैं रातमें, दिनमें, उनके हरदम ही नाम-जप होता रहता है ।

ऐसे ही अर्जुनकी बात आती है । अर्जुनके सोते समय ‘कृष्ण-कृष्ण’ नाम उच्‍चारण होता रहता था । इसी कारण एक बार अर्जुन जब सो रहे थे तो वहाँ नारदजी, शंकरजी, ब्रह्माजी सब आ गये । बड़े-बड़े सन्त इकठ्ठे हो गये । भगवान्‌ भी आ गये । अर्जुनके रोम-रोमसे नामोच्‍चारण हो रहा था । ‘सहजाँ नाम सिवरंदा है’मुखसे ही नहीं, रोम-रोमसे भगवन्नाम उच्‍चारण होता है ।

गोरखपुरके पास ही बरहज गाँवमें एक परमहंसजी महाराज रहा करते थे । उनके शिष्यका नाम श्रीराघवदासजी था । वे उत्तरप्रदेशके गांधी कहे जाते थे । उन परमहंसजी महाराजके शरीरको छुआ जाता तो ‘ॐ’ का उच्‍चारण होता । एक बार पहलवान राममूर्तिजी उनसे मिलनेके लिये गये । परमहंस बाबाके पैरकी अँगुली व अँगूठेसे जप हो रहा था । उन्होंने पहलवानसे कहाअँगूठेको हिलनेसे रोको । परन्तु वे अँगूठेको रोक नहीं सके । तो कहा कि ‘तुम्हारेमें जितना बल है, उससे ज्यादा बल तो बाबाके एक अँगूठेमें है ।’ नाम-महाराजका कितना विलक्षण प्रभाव है ! वह प्रभाव आदरप्रेमपूर्वक जपनेवालोंके सामने प्रकट होता है, बाकी दूसरे क्या जानें !

‘लोक लाहु परलोक निबाहू’‘राम’ नाम इस लोक और परलोकमें सब जगह काम देता है । इसलिये गोस्वामीजी कहते हैं‘मेरे तो माँ अरु बाप दोउ आखर’ । ‘र’ और ‘म’ये मेरे माँ-बाप हैं । संसारमें माता-पिताके समान रक्षा करनेवाला, पालन करनेवाला, हित करनेवाला दूसरा कोई है ही नहीं । गोस्वामीजी कहते हैं कि हमारे तो दोनों अक्षर माता-पिता हैं, हमारा पालन करनेवाले हैं

‘र’ रो पिता, माता ‘म’ मो है दोनोंका जीव ।
रामदास कर  बन्दगी  तुरत  मिलावे  पीव ॥

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे