धनके अभिमानके विषयमें कविने विचित्र बात कही है‒
हाकम जिन दिन होय विधि षट्
मेख बनावे ।
दोय श्रवणमें दिये शबद नहीं ताहि सुनावे ॥
एक मेख मुख माय विपति किणरी
नहीं बूझे ।
दोय मेख चख मांय सबल निरबल नहीं बूझे
॥
पद हीन होय हाकम परो
छठी मेख तल द्वार में ।
पांचों ही मेख छिटके परी सरल भये
संसारमें ॥
जब आदमी बड़ा हो जाता है, तो वह किसीकी कुछ सुनता नहीं, उसको दीखता नहीं और वह गूँगा
हो जाता है । उसके छः प्रकारकी मेख लग जाती है । दो मेख कानमें लगती हैं, जिससे शब्द सुनायी नहीं देता । कोई पुकार करे कि ‘अन्नदाता
! हमारे अमुक आफत आ गयी, आप कृपा करो, हमारे ऐसा बड़ा दुःख है ।’ कानसे बात सुननेमें आनी चाहिये
न ? परंतु वह सुनवायी करता ही नहीं, कानमें मेख लग गयी, अब सुने कहाँसे ? ऐसे ही दो और मेख आँखोंमें लगनेसे ‘सबल निरबल नहीं बूझे’ ‘दे दो दण्ड इसको, जुर्माना लगा दो इतना !’ ‘अरे भाई ! कितना गरीब है, कैसे दे सकेगा ?’ ‘कैद कर दो’‒शब्दमात्र कहते क्या जोर आया ? और एक मेख ‘मुख माय विपति किणरी नहीं बूझे’‒दुःखी हो कि सुखी, क्या हो, तुम्हारी दशा कैसी है ? तुम्हारे कोई तकलीफ तो नहीं है‒ऐसी बात पूछता ही नहीं । ये मेखें खुल जाती हैं
फिर ‘सरल भये संसारमें’‒तब वह सीधा सरल हो जाता है
।
संतद्वारा सेठको शिक्षा
एक सेठकी बात सुनी । वह सेठ बहुत धनी था । वह सुबह जल्दी उठकर
नदीमें स्नान करके घर आकर नित्य-नियम करता था । ऐसे वह रोजाना नहाने नदीपर आता था ।
एक बार एक अच्छे संत विचरते हुए वहाँ घाटपर आ गये । उन्होंने कहा‒‘सेठ ! राम-राम
!’ वह बोला नहीं तो फिर बोले‒‘सेठ ! राम-राम
!’ ऐसे दो-तीन बार बोलनेपर भी सेठ ‘राम-राम’ नहीं बोला । सेठने समझा कि कोई मँगता है । इसलिये कहने लगा‒‘हट ! हट ! चल, हट यहाँसे ।’ संतने देखा कि अभिमान बहुत बढ़ गया है, भगवान्का नाम भी नहीं लेता । मैं तो भगवान्का नाम लेता हूँ और यह हट कहता है
।
इन धनी आदमियोंके वहम रहता है कि हमारेसे कोई कुछ माँग लेगा, कुछ ले लेगा । इसलिये धनी लोग सबसे डरते रहते हैं । वे
गरीबसे, साधुसे, ब्राह्मणसे, राज्यसे, चोरोंसे, डाकुओंसे डरते हैं । अपने बेटा-पोता ज्यादा हो जायँगे तो धनका बँटवारा हो जायगा‒ऐसे
भी डर लगता है उन्हें ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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