Nov
25
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रवचन‒ ४
अमृतमय ‘राम’ नाम
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के ।
कमठ सेष सम धर बसुधा के
॥
(मानस, बालकाण्ड, दोहा २० । ७)
जीवका कल्याण हो जाय, इससे ऊँची कोई गति नहीं है । ऐसी जो श्रेष्ठ गति (मुक्ति) है, उसको ‘सुगति’ कहते हैं, परम सिद्धि भी वही है, जो इस ‘राम’ नामसे प्राप्त हो जाती है । ‘स्वाद तोष सम’‒अमृतके स्वाद और तृप्तिके समान ‘राम’ नाम है । जैसे, भोजन किया जाता है तो उसमें बढ़िया रस आता है । भोजन करनेके बादमें
तृप्ति और सन्तोष होता है, ऐसे ही यह ‘राम’ नाम सुगति और सुधाके स्वाद और तोष (तृप्ति) के समान है । मानो ‘र’ मधुरिमा और ‘म’ सन्तोष है । ‘रा’ कहते ही मुख खुलता है और ‘म’ कहते ही बन्द होता है । भोजन करते समय मुख खुलता है और तृप्ति होनेपर मुख बन्द
हो जाता है । इस प्रकार ‘रा’ और ‘म’ अमृतके स्वाद और तोषके समान
हैं ।
भोजनकी परीक्षाके लिये जीभपर रस लेकर तालुसे लगानेपर पता लग
जाता है कि उसमें रस कैसा है । जहाँसे रस लिया जाता है, वहाँसे ही ‘र’ का उच्चारण होता है । ‘र’ कहनेमें सुधाका स्वाद आता है और ‘म’ कहनेमें तोष हो जाता है । राम, राम, राम ऐसे कहते हुए एक बहुत विलक्षण रस आता है । उससे सदाके लिये तृप्ति हो जाती
है । नाममें रस आनेपर फिर दूसरे रसोंकी जरूरत नहीं रहती ।
जिनको भगवन्नाममें रस आ जाता है, उनकी संसारके विषयोंसे रुचि हट जाती है । जबतक संसारके विषयोंकी
रुचि रहती है, तबतक भगवन्नाममें रस नहीं आता है । भगवान्के नाममें
जब रस आना शुरू हो जाता है, फिर सब रस फीके हो जाते हैं ।
श्रीगोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒‘यदि ‘राम’ नाम मेरेको मीठा लगता तो सब-के-सब रस फीके हो जाते’ । भोजनके छः रस और काव्यके नौ रस होते हैं । ये सब फीके हो जाते हैं; क्योंकि ये सब बाह्य हैं । उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थोंसे मिलनेवाला रस ‘नीरसता’ में बदल जाता है । ‘विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्’‒संसारमें जितने रस हैं, वे विषय और इन्द्रियोंके सम्बन्धसे होनेवाले हैं । वे आरम्भमें अमृतके समान लगते
हैं, परंतु ‘परिणामे विषमिव’‒परिणाममें जहरकी तरह होते हैं । इस तरफ विचार न करनेसे मनुष्य
विषयोंमें फँसता है । जो विचारवान् सात्त्विक पुरुष होते हैं, वे पहले परिणामकी तरफ देखते हैं, इस कारण वे फँसते नहीं ।
सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं
सुदीर्घकालेऽपि
न याति विक्रियाम् ।
सज्जनो ! ये बातें ऐसे ही केवल कहने-सुननेकी नहीं हैं, समझनेकी हैं और समझकर काममें लानेकी हैं । आदमीको सोच-समझकर काम करना चाहिये ।
विचारपूर्वक काम करनेवालेको परिणाममें कष्ट नहीं उठाना पडता ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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