।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७१, रविवार 
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य

      

(गत ब्लॉगसे आगेका)

करणसापेक्ष और करणनिरपेक्ष साधनमें भेद

एक निर्माण होता है और एक अन्वेषण होता है । निर्माण उस वस्तुका होता है, जो पहले न हो तथा कृतिसाध्य हो और अन्वेषण उस वस्तुका होता है, जो पहलेसे ही स्वतःसिद्ध हो । करणसापेक्ष साधनमें अभ्यासके द्वारा एक नयी वस्तुका निर्माण होता है और करणनिरपेक्ष साधनमें अवस्थातीत तथा नित्यप्राप्त तत्त्वका अन्वेषण होता है‒‘ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः’ (श्रीमद्भा १० । १४ । २८), ततः पदं तत्यरिमार्गितव्यम्’ (गीता १५ । ४)

करणसापेक्ष साधनकी मुख्य बात है‒मन-बुद्धि (करण) को परमात्मामें लगानेसे ही उनकी प्राप्ति होती है । करणनिरपेक्ष साधनकी मुख्य बात है‒नित्यप्राप्त परमात्माकी प्राप्ति करणके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत करणके त्यागसे स्वतः होती है ।

करणसापेक्ष साधनमें बुद्धिकी प्रधानता होती है; अतः उसमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, जगत् आदि सब बुद्धिके विषय होते हैं । करणनिरपेक्ष साधनमें विवेककी प्रधानता होती है । करणके उपयोगमें तो विवे़ककी आवश्यकता है, पर विवेकके उपयोगमें करणकी आवश्यकता नहीं है ।

करणसापेक्ष साधनमें करण (बुद्धि) से सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर बोध होता है और करणनिरपेक्ष साधनमें विवेक ही बोधमें परिणत हो जाता है; क्योंकि विवेक नित्य है और करण अनित्य है ।

ज्ञानमयी वृत्तिसे जगत्‌को ब्रह्ममय देखना अर्थात् वृत्तियोंको लेकर चेतनको देखना करणसापेक्ष साधन है और विवेकके द्वारा वृत्तियोंकी उपेक्षा करके स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित होना करणनिरपेक्ष साधन है । जैसे, तुलसीसे बनी मालामें मणियोंके मध्यमें सूतको देखना अर्थात् मणियोंको साथ रखते हुए सूतको देखना करणसापेक्ष साधन है और आरम्भमें मणियोंके मध्यमें सूतको देखकर फिर मणियोंको छोड़ देना अर्थात् केवल सूतको देखना करणनिरपेक्ष साधन है ।

मैं, तू, यह और वह‒इन चारोंमें है’ (सत्ता) समान है; परन्तु मैंका साथ होनेसे वह हैएकदेशीय हूँबन जाता है । मैंको लेकर हैको देखना करणसापेक्ष साधन है । अतः ‘मैं ब्रह्म हूँ’यह मान्यता (बुद्धिसे होनेके कारण) करणसापेक्ष है और मैं नहीं है, ब्रह्म ही है’यह मान्यता (स्वयंसे होनेके कारण) करणनिरपेक्ष है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे