।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७१, सोमवार 
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य

      

(गत ब्लॉगसे आगेका)

रस्सीमें साँप दीखता है‒इसमें रज्जूपहित (रज्जुकी उपाधिवाला) चेतन ‘अधिष्ठान’ है, साँप अध्यस्त’ है और रस्सीमें साँपका दीखना अध्यास’ है । अध्यस्त वस्तुको लेकर अधिष्ठानका ज्ञान करना करणसापेक्ष साधन है और विवेककी प्रधानतासे अध्यस्त वस्तुका बाध (अत्यन्त अभावका अनुभव) करके अधिष्ठान (चेतन तत्त्व) में स्थित होना करणनिरपेक्ष साधन है ।

करणसापेक्ष साधनमें अभ्यास मुख्य है और करणनिरपेक्ष साधनमें विवेकका आदर मुख्य है । अभ्यासमें क्रिया है और विवेक क्रियारहित है ।

करणसापेक्ष साधनमें क्रिया’ (करने) की मुख्यता है और करणनिरपेक्ष साधनमें भाव’ (मानने) और बोध’ (जानने) की मुख्यता है ।

करणसापेक्ष साधनमें अभ्यास मुख्य होनेके कारण तत्काल सिद्धि नहीं मिलती[*] और करणनिरपेक्ष साधनमें विवेकका आदर मुख्य होनेके कारण तत्काल सिद्धि मिलती है । कारण कि करणसापेक्ष साधनमें तो एक अवस्था बनती है, पर करणनिरपेक्ष साधनमें अवस्था नहीं बनती, प्रत्युत अवस्थासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है तथा अवस्थातीत स्वतःसिद्ध तत्त्वका अनुभव होता है ।

करणसापेक्ष साधनमें मुमुक्षाकी मुख्यता है और करण-निरपेक्ष साधनमें जिज्ञासाकी मुख्यता है । मुमुक्षामें बन्धनसे छूटनेकी इच्छा रहती है और जिज्ञासामें तत्त्वको जाननेकी इच्छा रहती है । अतः मुमुक्षामें बन्धनके दुःखकी प्रधानता है और जिज्ञासामें सत्-असत्‌के विवेककी प्रधानता है ।

मनको भगवान्‌में लगाना करणसापेक्ष साधन है और संसारके सम्बन्धका निषेध करके मैं भगवान्‌का हूँ तथा भगवान् मेरे हैं’इस प्रकार अपने-आपको भगवान्‌में लगाना करणनिरपेक्ष साधन है ।

करणसापेक्ष साधनमें मनको साथ लेकर स्वरूपमें स्थिति होती है‒‘यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।’ (गीता ६ । १८), अतः मनके साथ सम्बन्ध रहनेसे योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती है‒‘योगाच्चलितमानसः’ (गीता ६ । ३७) । परन्तु करणनिरपेक्ष साधनमें मनके साथ सम्बन्ध न होनेके कारण योगभ्रष्ट (चलितमना) होनेकी सम्भावना रहती ही नहीं । करणनिरपेक्ष साधनमें पहलेसे ही मनके साथ सम्बन्धका त्याग रहता है ।

जैसे आरम्भमें कोई साधक सकाम होता है और कोई निष्काम होता है, पर सकाम साधकको अन्तमें निष्काम होनेपर ही तत्त्वका अनुभव होता है । ऐसे ही आरम्भमें कोई करणसापेक्ष (क्रियाप्रधान) साधन करता है और कोई करणनिरपेक्ष (विवेकप्रधान) साधन करता है पर करणसापेक्ष साधन करनेवालेको अन्तमें करणनिरपेक्ष होनेपर ही तत्त्वका अनुभव होता है; क्योंकि तत्त्व करणरहित है । दोनोंमें भेद इतना ही है कि करणसापेक्ष साधनमें पराधीनता रहती है, अहम्‌का जल्दी नाश नहीं होता, साधक अन्तकालमें योगभ्रष्ट हो सकता है और तत्त्वकी प्राप्ति देरीसे तथा कठिनतासे होती है । परन्तु करणनिरपेक्ष साधनमें स्वतन्त्रता रहती है, अहम्‌का नाश जल्दी होता है, योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती ही नहीं और तत्त्वकी प्राप्ति जल्दी तथा सुगमतासे हो जाती है[†]

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे


[*] तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः । स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽ ऽसेवितो दृढभूमिः । (योगदर्शन १ । १३-१४)
चित्तकी स्थिरताके लिये प्रयत्न करना अभ्यास है । वह अभ्यास बहुत समयतक निरन्तर और आदरपूर्वक सांगोपांग सेवन किया जानेपर दृढ़ अवस्थावाला होता है ।’
           [†] संकर सहज  सरूपु  सम्हारा ।
                         लागि समाधि अखंड अपारा ॥
                            (मानस १ । ५८ । ४)

हरीया जाणै सहज कु, सहजां सब कुछ होय ।
सहजां सांई पाइयै,   सहजां  विषिया  खोय ॥
सहजा मारग सहज का, सहज किया विश्राम ।
हरिया जीव र सीव का, एक नाम अर ठाम ॥